चुनावी व्यस्तताओं के बीच अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस भी आया और चला गया. यों तो पूरे साल यह देश कोई न कोई राष्ट्रीय अथवा अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाता रहता है. बाल दिवस, वृद्ध दिवस, महिला दिवस, किसान दिवस, पर्यावरण दिवस वगैरह.
अब तो हालात यह हैं कि साल के दिन भी कम पड़ गए हैं. एक ही तारीख में कई अलगअलग राष्ट्रीय अथवा अंतर्राष्ट्रीय दिवस पड़ रहे हैं, किसे मनाएं और किसे छोड़ें? पर क्या सचमुच हमारे देश की सरकारें और हम स्वयं इन तमाम गंभीर सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरण संबंधी मुद्दों के प्रति गंभीर हैं?
देश की प्राथमिकताओं में ये मुद्दे कहां हैं? राजनीतिक पार्टियों के घोषणापत्रों, संकल्पपत्रों एवं गारंटियों में यह मुद्दे कहां हैं? इन यक्ष प्रश्नों पर विचार क्यों नहीं होना चाहिए?
हमारे देश में चुनाव पर्व कमोबेश पूरे साल निरंतर चलता रहता है. विधानसभा, लोकसभा और राज्यसभा के अलावा ग्राम पंचायतों के चुनाव, विभिन्न स्थानीय निकायों के चुनाव, नगरपालिका, नगरनिगम, कार्पोरेशनों के चुनाव, नाना प्रकार की सहकारी समितियों, सोसाइटीज के चुनावों में देश लगातार व्यस्त रहता है.
हालिया लोकसभा के चुनाव चक्र में राजनीतिक पार्टियां पिछले कई महीनों से पूरे देश को मथ रही हैं. एकएक रैली पर करोड़ोंअरबों रुपए खर्च हो रहे हैं. कुल मिला कर अरबोंखरबों रुपए इन चुनावों के नाम पर खर्च किए जा रहे हैं, वहीँ दूसरी ओर चुनाव के नाम पर समस्त सरकारी मशीनरियां पंगु बनी हुई हैं. कहीं कोई सार्थक काम इंचभर आगे बढ़ता नहीं दिखता.
कहा जाता है कि अब जो कुछ भी होगा, चुनाव के बाद ही होगा. पर ये चुनाव तो सतत चलते ही रहेंगे. इन खर्चीले चुनावों के संपन्न होने के बाद दरअसल होता क्या है. अपवादों को छोड़ कर दें तो इस में जो प्रत्याशी जीतेंगे, वह सब से पहले चुनाव में खर्च की गई अपनी पूरी रकम मय ब्याज के इसी सिस्टम से येनकेन प्रकरेण वसूलेंगे.
उस के बाद अपने आगामी चुनावों के लिए और आगे अपनी संतानों के चुनाव खर्च की अग्रिम व्यवस्था के लिए भी पैसा जनता की योजनाओं से ही चूसा जाएगा. हमेशा की तरह ये सारे चयनित जनसेवक भी देखतेदेखते लोकतंत्र का पारस पत्थर घिस कर अमीर हो जाएंगे और आगे भी, हमारेआप के जैसे लोग इसी तरह मजदूर दिवस, किसान दिवस मनाते और जिंदाबादमुरदाबाद करते रह जाएंगे.
अगर ऐसा नहीं होता, तो आजादी के 77 सालों बाद भी हमारे एक मजदूर की दैनिक मजदूरी एक कप अच्छी कौफी की कीमत से भी कम न होती. देश में न्यूनतम मजदूरी 300 रुपए से भी कम मिल रही है, जबकि आज आभिजात्य कौफीहाउस के एक कप कौफी की कीमत इस से ज्यादा है.
सालोंसाल मजदूर दिवस बनाने और जिंदाबाद का पुरजोर नारा लगाने के बावजूद आज भी मजदूर न तो ढंग से जिंदा रहने के लिए अपनी बुनियादी जरूरतों की पूर्ति कर पा रहा है, न ही अपना स्वाभिमान बचा पा रहा है और न ही कहीं आबाद हो पा रहा है.
मजदूरों की बात हुई, तो भारत में सब से दयनीय मजदूर तो भारत का किसान है. किसान के न तो काम के घंटे तय होते हैं और न ही संडेमंडे की कोई छुट्टी होती है. उसे तो कड़कड़ाती ठंड में 4 डिगरी से भी कम तापमान में पानी लगाने के लिए आधी रात को खेत पर जाना ही पड़ेगा. 48 डिगरी में भी चाहे चिलचिलाती धूप हो, लू चल रही हो, उसे हर हाल में खेतों में पसीना बहाना ही पड़ेगा. इन को कोई केजुअल अथवा मैडिकल लीव नहीं मिलती. कुपोषण के मारे ये किसान 40 साल की उम्र में ही बूढ़े हो जाते हैं.
अब एक बार हम यह भी आकलन कर लें कि इस जीतोड़ मेहनत व नारकीय जीवन के बदले में उसे मिल क्या रहा है? क्या उन्हें उन की मजदूरी भी मिल पा रही है. 5 आदमी के परिवार के एक व्यक्ति की न्यूनतम औसत मजदूरी 300 रुपए प्रतिदिन भी गिना जाए, और साल की 200 दिनों की मजदूरी जोड़ी जाए, तो साल में एक किसान परिवार को खेती में उस की लागत और उस पर देय 50 फीसदी फायदे को छोड़ कर कम से कम 3 तीन लाख रुपए तो उस के और उस के परिवार की मजदूरी के ही मिलने चाहिए. परंतु देश का पेट भरने वाले अन्नदाता किसान को असल में क्या और कितना मिल रहा है, उस की बानगी पेश करना चाहूंगा.
देश में किसान परिवार की वर्तमान औसत मासिक आय केवल 10,218 रुपए है, जबकि झारखंड के किसान परिवार की औसत आय महज 4,895 रुपए प्रति माह है. इस का मतलब यह हुआ कि झारखंड के पूरे किसान परिवार की एक दिन की आमदनी लगभग 160 रुपए है.
हमारे गांव का औसत परिवार 5 आदमियों का माना जाता है. इस का मतलब हुआ कि एक व्यक्ति के हिस्से में रोजाना लगभग 30 रुपए ही आ रहे हैं. इस 30 रुपए में ही उसे दोनों टाइम अपना पेट भी भरना है, तन भी ढकना है, सामाजिक रिश्तों को भी निभाना है, बच्चों को पढ़ानालिखाना है, बूढ़े लाचार मांबाप पालने हैं और उन का और अपने परिवार का इलाज भी करवाना है, जबकि आज एक अच्छी सिगरेट की कीमत इस से ज्यादा है.
ओडिशा, पश्चिम बंगाल, बिहार के साथ ही दूसरे राज्यों के किसानों की स्थिति भी इस से कोई खास बेहतर नहीं है. सरकार वादा करने के बावजूद किसानों को उन के उत्पादन की न्यूनतम लागत (C2+FL) पर 50 फीसदी मुनाफे के साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य तय कर के उन्हें यह वाजिब मूल्य व्यापारियों से दिलवाने के लिए जरूरी एमएसपी गारंटी कानून भी नहीं ला रही है.
हकीकत तो यह है कि सरकार और बाजार दोनों मिल कर किसान का लगातार शोषण करते आए हैं. किसान के परिश्रम व पसीने को वाजिब मूल्य देने के नाम पर बाजार और सरकार दोनों को सांप सूंघ जाता है.
नौकरीपेशा मध्यम तबके की हालत भी बहुत खराब है. पिछले कई सालों से इनकम टैक्स स्लैब में कोई प्रभावी बदलाव नहीं आया है, जबकि महंगाई सूचकांक 50 फीसदी से भी ज्यादा बढ़ चुका है.
मध्यवर्गीय नौकरीपेशा व्यक्ति की साल में 2 महीने की मजदूरी अथवा वेतन सरकार हड़प ले रही है. इस से पच्चीसों हजार करोड़ रुपए खर्च कर के नई संसद बन गई है और ऐसे ही ढेर सारे अनुत्पादक कामों में इन करोड़ों कामगारों की खूनपसीने की कमाई लुटाई जा रही है.
हमारे नेता और उन की नीतियां हमारे किसानों, मजदूरों और कामगारों की स्थिति को तमाम वादों और जुमलों के बावजूद क्यों नहीं सुधार पा रही हैं, क्योंकि ये चंद पूंजीपतियों की दलाल सरकारें वैसा चाहती ही नहीं. इन की नीतियों के कारण गरीब दिनोंदिन और गरीब व अमीर दिनोंदिन और अमीर होते जा रहे हैं. देश का सारा पैसा, संपत्ति और संसाधन मुट्ठीभर धन्ना सेठों की तिजोरियों में कैद होता जा रहा है.
अब अपनेआप से यह पूछने का वक्त आ गया है कि क्या यही दिन देखने के लिए हमारे पूर्वजों ने अपनी जान पर खेल कर लाठी, डंडे, गोली खा कर, जेल में चक्की पीस कर, अपना खूनपसीना बहा कर अनगिनत जानें दे कर यह आजादी हासिल की थी? और अरबोंखरबों रुपए खर्च कर कराए जा रहे इन चुनावों से बहुसंख्यक किसान, मजदूर, कामगार परिवारों को क्या फायदा?
जब चुनाव के बाद जनता की सेवा के लिए अवसर मांगने वाले ये जनप्रतिनिधि चुनाव जीतने के चंद दिनों में ही येनकेन प्रकरेण देखतेदेखते करोड़पतिअरबपति हो जाएंगे और अब तक चली आ रही नीति और रीति के अनुसार फिर ऐसी नीतियां और योजनाएं बनाएंगे, जिस से कामगार, किसान बस किसी तरह जिंदा रहे और मरने न पाए. लेकिन दिनोंदिन गरीब और गरीब होता जाए और अमीर दिनोंदिन और अमीर. और इस सड़ेगले घुन लगे लोकतंत्र के अंतिम पायदान पर खड़ी जनता इन नकली जनसेवक नेताओं और उन के मुट्ठीभर चुनिंदा आकाओं की पालकी ढोता रहे.
शायद यह अंतिम सही वक्त है कि अब किसान,मजदूर, कामगार, नौकरीपेशा तबका एकसाथ बैठ कर यह तय करे कि क्या लोकतंत्र का वर्तमान स्वरूप, यह रीढ़विहीन चुनावी तंत्र और ये मंहगे चुनावी ड्रामे अब हमारे लिए बेसुरे, बेमानी और निरर्थक हो गए हैं. शायद हमारे संपूर्ण सिस्टम की पुनर्समीक्षा करने और बेहतर वैकल्पिक व्यवस्था के चयन के लिए विचारमंथन और इस संपूर्ण व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव करने का वक्त अब आ गया है.