बकरीपालन के फायदे

सवाल : क्या बकरीपालन फायदे का काम है? इस बारे में खासखास बातें बताएं?

-शीना मंजरी, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश

जवाब : बकरी सभी तरह की जलवायु में रह सकती है. बकरीपालन पर ज्यादा खर्च नहीं आता, इसलिए यह एक बेहतर व्यवसाय है. हमारे देश में बकरीपालन कुटीर धंधे के रूप में किया जा रहा है.

व्यावसायिक तौर पर बकरीपालन करने के लिए हमें उन की उन्नत नस्लों के बारे में पता होना जरूरी है. बकरी के चारे, प्रजनन, इलाज व रखरखाव वगैरह के बारे में आप अपने जिले के कृषि विज्ञान केंद्र से पूरी जानकारी ले सकती हैं. जब से डेंगू के मरीजों को बकरी का दूध दिया जाने लगा है, तब से बकरी पालने का फायदा बढ़ गया है.


सवाल : मेरे बगीचे में संतरे के 20 पेड़ हैं, जो 6-7 साल के हो चुके हैं. इन में पहली बार तकरीबन सौ फल लगे हैं, जो नीबू से भी ज्यादा खट्टे हैं. ऐसा क्यों हुआ? क्या ये खट्टे से मीठे हो सकते हैं?

-अभिषेक राज, विदिशा, मध्य प्रदेश

जवाब : आप ने यह नहीं बताया कि किस मौसम में फल आए थे. आमतौर पर सर्दी के मौसम के फलों में खटास कुछ ज्यादा ही होती है, पर गरमी वाले फल मीठे होते हैं. वैसे, यह प्रजाति भी ऐसी हो सकती है, जो खट्टी हो.


सवाल : मैं अपने बाग में अंगूर लगाना चाहती हूं. कृपया जानकारी दें?

-मोनिका, मेरठ, उत्तर प्रदेश

जवाब : आप ने यह नहीं बताया कि आप का किस फल का बाग है, जिस में आप अंगूर लगाना चाहती हैं. आम, लीची, अमरूद व जामुन वगैरह के बाग में अंगूर नहीं लगाया जा सकता.


सवाल : मैं भिंडी की खेती करना चाहता हूं. इस बारे में जानकारी दें?

-दिनेश कुमार, मुरादनगर, उत्तर प्रदेश

जवाब : पूसा ए 4, परभनी क्रांति, पूसा मखमली, पूसा सावनी, अर्का अनामिका व हिसार उन्नत वगैरह भिंडी की उन्नतशील किस्में हैं. भिंडी की बोआई का समय फरवरीमार्च होता है.

बोआई के लिए खरीफ मौसम में 8-10 किलोग्राम व जायद मौसम में 18-20 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें. जायद में 80-100 क्विंटल व खरीफ में 150-180 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज हासिल होती है. ज्यादा जानकारी हेतु अपने जिले के कृषि विज्ञान केंद्र से संपर्क करें.


खेतीकिसानी से जुड़े सवाल आप हमें अपने नाम, पते और मोबाइल नंबर के साथ ईमेल farmnfood@delhipress.in  पर भेज सकते हैं.   

लेजर लैंड लैवलर से करें खेत को समतल, पाएं ज्यादा पैदावार

 भूमि समतलीकरण फसल, मिट्टी एवं जल के उचित प्रबंधन की पहली जरूरत है. अगर भूमि के समतलीकरण पर ध्यान दिया जाए, तो उन्नत कृषि तकनीकें और ज्यादा फायदेमंद साबित हो सकती हैं. इसलिए किसान अपने खेतों को समतल करने के लिए उपलब्ध साधनों का पर्याप्त रूप से उपयोग
करते हैं.

इतना ही नहीं, भूमि के समतलीकरण की पारंपरिक विधियां बहुत ही कठिन और अधिक समय लेने वाली हैं. धान की खेती करने वाले किसान अपने खेतों में पानी भर कर समतल करते हैं. लगभग 20-25 फीसदी पानी का नुकसान खेतों के असमतल होने के चलते ही होता है.

असमतल होने की वजह से धान के खेतों में इस वजह से भी ज्यादा नुकसान होता है. असमतलीकरण से सिंचाई जल के नुकसान के अलावा जुताई और अन्य फसल उत्पादन प्रक्रियाओं में देरी होती है.

असमतल खेतों में फसल एकसमान नहीं होती है. उन का फसल घनत्व अलगअलग होता है. फसल एक समय में नहीं पकती है. इन सभी वजहों से फसल की उपज पर काफी बुरा असर पड़ता है और उन की क्वीलिटी भी गिर जाती है. साथ ही साथ किसानों को अपनी फसल के दाम भी बहुत कम मिलते हैं.
भूमि समतलीकरण के काम समतल भूमि में फसल प्रबंधन का काम कम हो जाता है. साथ ही, पानी की बचत होती है. फसल के उत्पादन एवं गुणवत्ता में वृद्धि होती है. भूमि समतलीकरण के निम्न फायदे हैं :

 अधिक फसल उत्पादन

भूमि समतलीकरण से 20 फीसदी तक उपज में बढ़ोतरी संभव है. भूमि जितनी अधिक समतल होगी, उतनी ही उत्पादन में अधिक वृद्धि होगी.

खरपतवार पर नियंत्रण

समतल भूमि में खरपतवार का नियंत्रण अच्छी तरह से किया जा सकता है. धान के खेतों में अधिक भूमि क्षेत्रों में पानी भरा होने से खरपतवार 40 फीसदी तक कम हो जाते हैं. साथ ही साथ निराई में कम मजदूर लगते हैं और लागत भी कम हो जाती है.

उत्पादन में वृद्धि

अच्छी तरह समतल भूमि में पानी का समान वितरण होता है, जिस से पोषक तत्त्वों का नुकसान नहीं होता है. जड़ सड़न और तना सड़न जैसे रोग कम लगते हैं और लगभग 10 से
15 फीसदी तक उत्पादन बढ़ जाता है.

समय और पैसों की बचत

समतल भूमि में सिंचाई करने में कम समय लगता है और क्यारियां और बरहें 50 से 60 फीसदी कम बनाने पड़ते है, जिस से समय व पैसों की बचत होती है

सिंचाई में पानी की बचत

समतल भूमि में 10 से 15 फीसदी पानी की बचत होती है, जिस से जल संरक्षण में मदद मिलती है और मिट्टी की सेहत में सुधार होता है.

भूमि समतलीकरण की विधियां

भूमि समतलीकरण पशुचालित, ट्रैक्टरचालित और बुलडोजर के द्वारा भिन्नभिन्न समतलन (लैवलर) यंत्रों के उपयोग के द्वारा किया जा सकता है. पहले हल व हैरो द्वारा जुताई और फिर पटेला चला कर समतल किया जाता है. समतल किए खेतों में पूरी तरह से पानी भर कर (5 सैंटीमीटर या उस से अधिक) भी किया जाता है.

ट्रैक्टर द्वारा लैवलिंग ब्लेड या डग बकेट यंत्रों का उपयोग कर के भूमि को समतल किया जाता है. इस काम में 4 से 8 घंटे लगते हैं, जो ट्रैक्टर यंत्र व हटाए जाने वाले भूमि के आयतन और भरने वाले स्थान की दूरी पर निर्भर करता है. लेजर पद्धति में ट्रैक्टर द्वारा बकेट या लैवलर ब्लेड का उपयोग कर के भूमि को समतल किया जाता है. इस में भूमि का तल बिलकुल समतल या एकजैसी ढाल देने के लिए लेजर किरण का उपयोग किया जाता है. लेजर पद्धति द्वारा भूमि 50 फीसदी तक अधिक समतल होती है.

लेजर पद्धति द्वारा भूमि समतलीकरण से लाभ

लेजर पद्धति का उपयाग उन्नत देशों जैसे जापान, अमेरिका, आस्ट्रेलिया आदि में भूमि समतलीकरण के लिए किया जाता है. हमारे देश में इस पद्धति का उपयोग सीमित तौर पर शुरू हो रहा है. इस का ज्यादा से ज्यादा उपयोग हो, इस के लिए किसानों को इस का महत्त्व समझाना जरूरी है. इस के मुख्य लाभ निम्न हैं :
* अधिक समतल एवं चिकनी भूमि सतह.
* खेतों की सिंचाई में लगने वाले पानी की मात्रा एवं समय में कमी.
* सिंचाई में पानी का समान वितरण.
* भूमि में नमी का समान वितरण.
* अधिक अच्छा अंकुरण व फसल की बढ़वार.
* बीज, खाद, रसायन व डीजल और बिजली की बचत.
* यंत्रों सहित खेतों में चलनाफिरना आसान.

लेजर लैवलर की कार्य प्रणाली

लेजर लैवलर समतलीकरण की एक ऐसी मशीन है, जो ट्रैक्टर की मदद से ऊंचेनीचे खेतों को एक समतल सतह में बराबर करने के लिए इस्तेमाल की जाती है. इस मशीन के द्वारा किरणों के निर्देशन से चलने वाली स्वचालित धातु का बग ब्लेड होता है, जो हाइड्रोलिक पंप के दबाव से काम करता है और ऊंचे स्थानों से खुद मिट्टी काट कर निचले स्थान पर गिरा देता है, जिस से खेत बराबर हो जाता है.

लेजर संप्रेषण
लेजर संप्रेषण बैटरी से चलने वाला एक किरण निकालने वाला छोटा यंत्र होता है, जिस को खेत के बाहर एक स्थान पर निर्धारित कर रख दिया जाता है, जो चालू करने पर एक सीधी रेखा में चारों तरफ किरणें निकालता है. किरणों के स्तर पर खेत समतल होता है.

लेजर ग्राही
लेजर ग्राही ब्लेड के ऊपर लगाया जाता है, जो लेजर संप्रेषण द्वारा भेजी गई किरणों को प्राप्त कर नियंत्रण बौक्स को सूचना देता है, जिस से नियंत्रण बौक्स काम करता है.

नियंत्रण बौक्स
नियंत्रण बौक्स एक छोटे से डब्बे जैसा यंत्र है जिस से छोटेछोटे बल्ब लगे होते हैं. ट्रैक्टर ड्राइवर के पास इस को लगाया जाता है, जिस से ड्राइवर की नजर उस पर पड़ती रहे. यह पूरी तरह से स्वसंचालित होता है. खेत को जिस सतह पर समतल करना होता है, उस की सूचना नियंत्रण बौक्स में निर्धारित कर दी जाती है. यह हाइड्रोलिक यूनिट को चलाता है.

हाइड्रोलिक यूनिट
हाइड्रोलिक यूनिट ट्रैक्टर के हाइड्रोलिक से जुड़ी रहती है, जो नियंत्रण बौक्स के सूचना देने पर ब्लेड को ऊपरनीचे करने में सहयोग करते हुए संचालित करती है, जिस से मिट्टी काटी या गिराई जाती है और खेत समतल होता है.

लेजर लैवलर का संचालन

इस मशीन को संचालित करने के लिए कम से कम 50-60 हौर्सपावर के ट्रैक्टर की जरूरत पड़ती है. इस मशीन से खेत को समतल करने के लिए सब से पहले उसे किस लैवल पर समतल करना है, इस के लिए इस मशीन के विशेष फोल्डिंग मीटर एवं लेजर संप्रेषक की मदद से खेत में सर्वे कर लैवलिंग सतह का निर्धारण कर लिया जाता है.

यही निर्धारण सतह लेजर लैवलर नियंत्रण बौक्स में निर्धारण कर देते हैं और इस मशीन को ट्रैक्टर से जोड़ कर खेत में एक तरफ से चलना शुरू कर देते हैं, जो लेजर संप्रेषक द्वारा भेजी जा रही किरण को प्राप्त कर नियंत्रण बौक्स के माध्यम से हाइड्रोलिक यूनिट द्वारा दबाव से चलने वाले ब्लेड के द्वारा मिट्टी काट कर या गिरा कर खेत को समतल कर देता है.

खर्सू के पेड़ पर रेशम

रेशम प्राकृतिक प्रोटीन से बना रेशा है. रेशम का इस्तेमाल कपड़ा बनाने के लिए किया जाता है. इस की बनावट के कारण यह बाजार में बहुत महंगी कीमतों में बिकता है. इन प्रोटीन रेशों में मुख्यत: फिब्रोइन होता?है. ये रेशे कीड़ों के लार्वा द्वारा बनते हैं.

रेशम की खेती मुख्यत: 3 प्रकार से होती है, मलबेरी रेशम, टसर रेशम व एरी रेशम के रूप में. सब से उत्तम रेशम शहतूत है, जो कि अर्जुन के पत्तों पर पलने वाले कीड़ों के लार्वा द्वारा बनाया जाता है. लेकिन मुनस्यारी में खर्सू जैसे सामान्य पेड़ पर भी इस का उत्पादन हो रहा है. दशकों से जानवरों के चारे और शीतकाल में सेंकने के लिए कोयला देने वाला खर्सू से रेशम भी बन सकता है.

इस पर कृषि विभाग कार्यशाला भी आयोजित करता है, ताकि किसान उत्साह से इस की जानकारी ले कर रेशम उत्पादन में आत्मनिर्भर बन सकें.

अब तक नगण्य समझे जाने वाले कालामुनि, बिटलीधार के खर्सू के पेड़ों से रेशम तैयार होने लगा है. आने वाले सालों में खर्सू स्थानीय ग्रामीणों की आजीविका का प्रमुख माध्यम बनने जा रहा है.

खर्सू चारा प्रजाति का पेड़ है. इस की चौड़ी पत्तियां जानवरों को खूब भाती हैं. जानवरों के लिए इन पत्तियों का चारा सब से पौष्टिक माना जाता है.

पशुपालकों के मुताबिक, खर्सू की पत्तियों का चारा खिलाने से दुधारू जानवरों का दूध बढ़ जाता?है. जंगलों में काफी अधिक संख्या में पाए जाने वाले इस वृक्ष की लकड़ी जलाने के काम आती है. इस के कोयले भी बनाए जाते हैं, जिन का प्रयोग ऊंचाई पर रहने वाले लोग शीतकाल में आग सेंकने में लाते हैं. इस वजह से इन का कटान भी काफी होता है.

इस खर्सू के दिन अब फिर गए हैं. पहाड़ी इलाके में शहतूत और बांज की पत्तियों में रेशम पैदा किया जाता है, पर अब खर्सू से रेशम पैदा करने की कवायद शुरू हो चुकी?है.

सब से पहले तो खर्सू जंगलों में काफी अधिक होता है. इस के लिए अलग से जंगल तैयार करने की आवश्यकता नहीं है. मुनस्यारी के ऊंचाई वाले कालामुनि, बिटलीधार से ले कर मुनस्यारी के आसपास के जंगलों में यह बहुतायत में है.

अब तक जानवरों के लिए पौष्टिक आहार मानी जाने वाली पत्तियों को रेशम के कीट भी अपना आहार बनाने जा रहे हैं. आने वाले दिनों में स्थानीय लोगों के लिए खर्सू आमदनी का प्रमुख जरीया बनने जा रहा है. खर्सू की पत्तियां खा कर कीट टसर बनाएगा. किसान खर्सू के पेड़ की सहज उपलब्धता से काफी उत्साहित है और एक विशेष बात यह है कि रेशम की फसल सब से कम समय में तैयार होती है. इस फसल को तैयार होने में 40 से 50 दिन लगते हैं, जिस को किसान खर्सू के पेड़ों का टसर रेशम का उत्पादन कर अच्छी आमदनी प्राप्त कर रहे हैं.

इस काम को करने से लोगों के रोजगार के रास्ते भी खुल रहे हैं. खरीदार खुद आ कर माल ले जाते हैं. यह काम काफी सुविधाजनक है और कम तामझाम वाला है. खर्सू के एक पेड़ पर कुछ हजार कीट लाखों रुपयों का रेशम दे रहे हैं. इस का लाभ यह दिख रहा है कि पहाड़ों से शहर की तरफ पलायन भी रुक रहा है.

खर्सू का बीज तो नि:शुल्क मिलता है और यहां के लोगों द्वारा खर्सू के पेड़ और उगाए जा रहे हैं. रेशम उद्योग के साथसाथ पर्यावरण संरक्षण भी हो रहा है.

कृषि यंत्रों में ईंधन की बचत

मशीनों का इस्तेमाल जिस तरह से खेती में दिनोंदिन बढ़ रहा है, उस की वजह से खेती के काम भी बेहद आसान हो गए हैं. आज खेती से जुड़ा कोई ऐसा काम नहीं है, जिस के लिए मशीनें न हों. खेती में मशीनीकरण और यंत्रीकरण के चलते मेहनत, लागत के साथ ही साथ समय की बचत और जोखिम में भी कमी आई है.

खेती में डीजल या पैट्रोल की खपत बहुत ज्यादा होती है. खेती में काम आने वाली ज्यादातर मशीनें पैट्रोल या डीजल से ही चलती हैं. ऐसे में देश में आएदिन पैट्रोल और डीजल की कीमतें बढ़ रही हैं. उसी के चलते खेती में लागत भी तेजी से बढ़ी है, इसलिए जरूरी हो जाता है कि किसान खेती में काम आने वाली मशीनों, ट्रैक्टर व इंजनों में डीजलपैट्रोल की खपत को कम करने के लिए जरूरी सावधानियां बरतें. इस से न केवल ईंधन पर खर्च होने वाली लागत में कमी आएगी, बल्कि इस प्राकृतिक संसाधन के फुजूल खर्च में भी कटौती की जा सकती है.

इस बारे में जनपद बस्ती में विशेषज्ञ, कृषि अभियंत्रण इंजीनियर वरुण कुमार से बातचीत हुई. पेश हैं, उसी के खास अंश :

ट्रैक्टर का इस्तेमाल करते समय डीजल की खपत को कम करने के लिए कौन सा तरीका अपनाया जा सकता है?

जब भी ट्रैक्टर का इस्तेमाल करने जा रहे हों, तो ट्रैक्टर को स्टार्ट करने से पहले उस के चारों पहियों में हवा जरूर जांच लें. अगर पहियों में हवा कम है, तो डीजल की खपत बढ़ जाती है, इसलिए पहियों में हवा का सही दबाव बनाए रखने के लिए ट्रैक्टर के साथ मिलने वाली निर्देशपुस्तिका के मुताबिक ट्रैक्टर के पहियों में हवा डलवा लें, तभी इस का इस्तेमाल करें.

इस के अलावा खेत में ट्रैक्टर से इस तरह से काम लें कि खेत के किनारों पर घूमने में कम समय लगे. कोशिश करें कि ट्रैक्टर को चौड़ाई के बजाय लंबाई में घुमाया जाए. इस से ट्रैक्टर खेत में खाली कम घूमता है और डीजल की खपत भी कम हो जाती है.

क्या इंजन में मोबिल औयल के पुराने होने से ईंधन या डीजल खर्च बढ़ जाता?है?

जी हां. अगर इंजन में मोबिल औयल ज्यादा पुराना हो गया हो, तो इंजन के काम करने के तरीके पर इस का सीधा असर पड़ता है और इंजन की कूवत घटने लगती है. इस वजह से ईंधन का खर्च बढ़ जाता है. डीजल खर्च बढ़ने न पाए, इसलिए निश्चित समय पर इंजन का मोबिल औयल और फिल्टर जरूर बदल देना चाहिए.

अगर इंजन से काला धुआं निकल रहा हो, तो क्या डीजल की खपत ज्यादा हो रही है. अगर हां, तो इसे कैसे कम करें?

इंजन से काला धुआं निकलना डीजल के ज्यादा खर्च होने का संकेत है. इस का मतलब है कि इंजैक्टर या इंजैक्शन पंप में कोई खराबी हो सकती है. इन हालात से बचने के लिए ट्रैक्टर को 600 घंटे चलाने के बाद उस के इंजैक्टर की जांच जरूर करवा लें या उसे फिर से बंधवाने की जरूरत होती है. कभीकभी इंजन स्टार्ट करने के बाद कुछ मिनट तक काला धुआं निकलता है, जो कुछ ही समय बाद सफेद हो जाता है. अगर इंजैक्टर या इंजैक्शन पंप ठीक होने पर भी काला धुआं लगातार निकलता रहे, तो यह इंजन पर पड़ रहे ओवरलोड की निशानी है. इसलिए ओवरलोड कर के इंजन नहीं चलाना चाहिए.

पंप सैट में डीजल की खपत को कम करने के लिए कौनकौन सी सावधानियां बरतें?

सब से पहले तो यह ध्यान देना जरूरी है कि पंप सैट को खाली न चलाया जाए, बल्कि उसे चालू करने के तुरंत बाद ही काम लेना शुरू कर दें, क्योंकि ठंडा इंजन चलाने से उस के पुरजों में घिसावट होती है. इस के चलते इंजन में ज्यादा तेल लगता है.

इस के अलावा पंप सैट से ज्यादा दूरी से पानी खींचने में भी डीजल की खपत ज्यादा होती है, इसलिए यह ध्यान दें कि जब भी पंप सैट से पानी खींचना हो, तो उसे पानी की सतह से करीब लगा कर इस्तेमाल करना चाहिए. इस से डीजल की खपत को काफी हद तक कम किया जा सकता है. साथ ही, पंप सैट को चलाने वाली बैल्ट यानी पट्टे के फिसलने से डीजल का खर्च बढ़ता है, इसलिए बैल्ट को टाइट कर के रखना चाहिए. यह भी ध्यान दें कि बैल्ट में कम से कम जोड़ हों और घिर्रियों की सीध में हों. इस से पंप सैट पर लोड कम पड़ने से डीजल कम खर्च होता है.

पंप सैट से जुड़ी पानी को बाहर फेंकने वाली पाइप को जमीन की सतह से बहुत ज्यादा ऊपर नहीं उठाना चाहिए, क्योंकि पाइप जमीन की सतह से जितनी ऊंची होगी, इंजन पर उतना ज्यादा बोझ पड़ेगा और डीजल ज्यादा खर्च होगा. पाइप को उतना ही ऊपर उठाना चाहिए, जितनी जरूरत हो.

डीजल या पैट्रोल से चलने वाली मशीनों में ईंधन की खपत को कम करने के लिए और किन चीजों पर ध्यान देना जरूरी?है?

जब भी इंजन चालू किया जाता है, तो उस की आवाज ध्यान से सुनें. अगर उस के टाइपिट से आवाज आ रही हो, तो इस का मतलब है कि इंजन में हवा कम जा रही है. इस से इंजन में डीजल की खपत बढ़ जाती है, इसलिए टाइपिट से आवाज आने पर उसे सही से फिट कराएं.

खेती की मशीनें, जो डीजल या पैट्रोल से चलती हैं, उन में डीजल के किफायती खर्च के लिए मशीन खरीदते समय निर्देशपुस्तिका मिलती है. उस में तमाम तरह की सावधानियां लिखी होती हैं. निर्देशपुस्तिका में लिखी गई उन तमाम बातों का पालन जरूर करें.

गाजर की उन्नत खेती और उसके कृषि यंत्र

गाजर एक अत्यंत ही पौष्टिक एवं महत्त्वपूर्ण सब्जी है. इस का उपयोग सलाद, सब्जी, हलवा, मुरब्बा, जूस और रायता आचार आदि के रूप में किया जाता है. आमतौर पर गाजर का रंग नारंगी, लाल, काला व पीला होता है. इस के प्रयोग से भूख बढ़ती है, आंखों की रोशनी बढ़ती है और गुरदे की बीमारी में लाभप्रद होता है.

जलवायु : गाजर ठंडी जलवायु की फसल है. इस की जड़ों का रंग और बढ़वार तापमान द्वारा प्रभावित होती है. इस के लिए 10 डिगरी सैल्सियस तापमान अच्छा पाया गया है. अधिक तापमान पर जड़ें छोटी और कम तापमान पर जड़ें लंबी और पतली हो जाती हैं.

भूमि एवं भूमि की तैयारी : गाजर की खेती दोमट या बलुई दोमट, जिस में जीवांश की पर्याप्त मात्रा हो एवं जल निकास का उचित साधन हो, भूमि में कड़ी परत न हो, इस की खेती के लिए सब से उपयुक्त समझी जाती है. खेत की 3-4 जुताई कर के मिट्टी भुरभुरी बना लेनी चाहिए और खेत तैयार करते समय खेत में गोबर कि खाद भी देनी चाहिए.

उन्नतशील किस्में

लाल रंग की किस्में : पूसा वृष्टि, काशी अरुण, पूसा रुधिका.

नारंगी रंग की किस्में : पूसा नयन ज्योति, पूसा यमदग्नि, कुरोडा, नैन्टीज.

काले रंग की किस्में : पूसा आसिता, पूसा कृष्णा.

खाद एवं उर्वरक : 8 से 10 टन गोबर की सड़ी खाद प्रति हेक्टेयर की दर से बोने से 3 हफ्ते पहले डाल कर मिट्टी में अच्छी तरह मिला दें, तो बोआई के पहले अंतिम जुताई के समय 30 किलोग्राम नाइट्रोजन, 25 किलोग्राम फास्फोरस व 30 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में डालें. बोआई के 30 दिन बाद 30 किलोग्राम नाइट्रोजन को टौप ड्रैसिंग रूप में दें.

बोआई का समय : गाजर की बोआई आमतौर पर अगस्त से अक्तूबर महीने तक की जाती है.

बीज की बोआई एवं दूरी : बोआई के समय खेत में ठीकठाक नमी होनी चाहिए. इस के लिए बोआई से पहले खेत का पलेवा कर खेत की जुताई करें. इस की बोआई 30-40 सैंटीमीटर की दूरी पर बनी मेंड़ों पर करें. मेंड़ों पर 1 से 2 सैंटीमीटर गहराई पर लाइन बना कर बोआई करें और मिट्टी से ढक दें. जब बीज का अंकुरण हो जाए, तो पौधों को 6-7 सैंटीमीटर की दूरी बनाते हुए घने पौधों को निकाल दें. इस प्रकार एक हेक्टेयर के लिए 6 से 8 किलोग्राम बीज की जरूरत पड़ती है. आजकल गाजर बोआई के लिए कृषि यन्त्र गाजर प्लांटर का भी इस्तेमाल होने लेगा है.

सिंचाई : बोआई के समय भूमि में नमी की कमी हो, तो बोने के तुरंत बाद हलकी सिंचाई करें, परंतु बोआई के समय भूमि में जमाव के लिए पर्याप्त नमी होनी चाहिए. पहली सिंचाई बीज उगाने के बाद करनी चाहिए. गरम मौसम में सप्ताह में एक बार और सर्दियों में 10-12 दिन के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए. इस बात का ध्यान रखें कि खेत सूखने और सख्त न होने पाए, नहीं तो जड़ों का समुचित विकास नहीं हो पाता है. साथ ही, जड़ फटने की संभावना बनी रहती है.

खुदाई : जड़ों का जब पूरी तरह से विकास हो जाए, तो उन की खुदाई कर लेनी चाहिए. सुगमतापूर्वक खुदाई के लिए खेत में हलकी सिंचाई कर दें और पत्तियों को काट दें. खुदाई कुदाल या फावड़े से करें. खुदाई करने के बाद जड़ों को पानी से अच्छी तरह धो लें. बहुत बारीक जड़ों को अलग कर लें और ग्रेडिंग के बाद बाजार में भेजें.

पैदावार : आमतौर पर गाजर की फसल 80 से 95 दिन में खुदाई के लिए तैयार हो जाती है. इस की औसत पैदावार 250 से 450 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक हो जाती है.

कीट एवं रोग नियंत्रण माहू : यह कीट पत्तियों की निचली सतह, पौधों की शाखाओं और फूलों पर चिपके रहते हैं. शिशु एवं वयस्क दोनों ही हानि पहुंचाते हैं और पत्तियों एवं फूलों का रस चूस कर पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं, जिस से फसल की बढ़वार रुक जाती है और पत्तियां पीली पड़ने लगती हैं. इस कीट का प्रकोप फरवरी व अप्रैल महीने में अधिक होता है. इस के नियंत्रण के लिए इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल 0.3 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी की दर से छिड़काव करें.

पाउडरी मिल्ड्यू : इस रोग में पत्तियों पर सफेद रंग का पाउडर जगहजगह बन जाता है. इस के नियंत्रण के लिए 2.5 किलोग्राम घुलनशील गंधक को 600 लिटर पानी में घोल बना कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.  गाजर की खेती कृषि यंत्रों का प्रयोग गाजर बीज की बोआई बिजाई यंत्र से करें गाजर की बिजाई मजदूरों के अलावा मशीन से भी कर सकते हैं.

गाजर कि खेती में कृषि यंत्रो का प्रयोग: इस के लिए तमाम कृषि यंत्र बाजार में मौजूद हैं. हरियाणा के अमन विश्वकर्मा इंजीनियरिंग वर्क्स के मालिक महावीर प्रसाद जांगड़ा ने खेती में इस्तेमाल की जाने वाली तमाम मशीनें बनाई हैं, जिन में गाजर बोने के लिए गाजर बिजाई की मशीन भी शामिल है.

गाजर बिजाई की मशीन यह मल्टीक्रौप बिजाई मशीन है, जो बोआई के साथसाथ मेंड़ भी बनाती है. इस मशीन से गाजर के अलावा मूली, पालक, धनिया, हरा प्याज, मूंग, अरहर, जीरा, गेहूं, लोबिया, भिंडी, मटर, मक्का, चना, कपास, टिंडा, तुरई, सोयाबीन, टमाटर, फूलगोभी, पत्तागोभी, सरसों, राई और शलगम जैसी तमाम फसलें बोई जा सकती हैं.

पूसा गाजर प्लांटर: गाजर बीज बोने वाले इस यंत्र को 35 हौर्सपावर ट्रैक्टर के साथ चलाया जाता है और इस के द्वारा एक घंटे में 5 हेक्टेयर खेत में गाजर बीज बोया जा सकता है. 8 लाइन में बोआई करने के लिए यह गाजर प्लांटर एकसमान गहराई पर बीज डालता है. साथ ही, पानी की भी बचत करता है.

यंत्र कृषि यांत्रिकी विभाग, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा, नई दिल्ली द्वारा बनाया गया है.

मशीन से धोएं गाजर: खेत से निकालने के बाद गाजरों की धुलाई का काम भी काफी मशक्कत वाला होता है, जिस के लिए मजदूरों के साथसाथ ज्यादा पानी की जरूरत भी होती है. जिन किसानों के खेत किसी नहरपोखर वगैरह के किनारे होते हैं, उन्हें गाजर की धुलाई में आसानी हो जाती है. इस के लिए वे लोग नहर के किनारे मोटर पंप के जरीए पानी उठा कर गाजरों की धुलाई कर लेते हैं, लेकिन सभी को यह फायदा नहीं मिल पाता. महावीर जांगड़ा ने जड़ वाली सब्जियों की धुलाई करने के लिए भी मशीन बनाई है. इस धुलाई मशीन से गाजर, अदरक व हलदी जैसी फसलों की धुलाई आसानी से की जाती है. इस मशीन से कम पानी में ज्यादा गाजरों की धुलाई की जा सकती है. इस मशीन को ट्रैक्टर से जोड़ कर आसानी से इधरउधर ले जाया जा सकता है.