कहा जाता है कि किसान किसी भी देश की रीढ़ होते हैं और उन की दशा ही देश की दिशा सुनिश्चित करती है. जिस देश में किसानों की बदहाली होती है, वह देश कभी विकसित हो ही नहीं सकता. आज यही स्थिति देश के विभिन्न राज्यों में देखने को मिल रही है.
किसानों को बैंकों से लिया कर्ज चुकाने और दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने के लिए नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं. इसी के चलते कई किसान अपनी जान की ही बाजी लगा दे रहे हैं. उन के पास इस के अलावा कोई दूसरा तरीका ही नहीं है.
किसान बैंकों से बीज, ट्रैक्टर व ट्यूबवेल वगैरह खरीदने के लिए कर्ज लेते हैं, लेकिन फसल चौपट होने पर वे कर्ज का भुगतान नहीं कर पाते हैं. ऐसे में वे मजबूरन आत्महत्या तक कर लेते हैं. कंगाली और बदहाली के कारण बैंक का कर्ज चुकाना तो दूर वे अपने परिवार का भरणपोषण भी नहीं कर पाते.
यदि किसानों के हालात ऐसे ही बदतर होते रहे तो एक दिन वे खेती करना ही बंद कर देंगे, तब देश में एक भयावह स्थिति पैदा हो जाएगी. इस हालत में दोषी किसान भी हैं, क्योंकि उन में एकजुटता का अभाव अकसर देखने को मिलता है. इसी का फायदा सरकार उठाती है और वह उन के हितों की अनदेखी कर के उन की मांगों को दरकिनार कर देती है. इन्हीं सब कारणों से किसान तंगहाली से जूझ रहे हैं.
जरूरत है कि किसानों को सही मात्रा में कर्ज व सहायता मुहैया कराई जाए ताकि वे खेतीबारी की दशा सुधार कर के सही तरह से खाद्यान्न उत्पादन कर देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत कर सकें.
लेकिन ये योजनाएं अधिकारियों और बिचौलियों की कमाई का जरीया बन जाती हैं.
आज के दौर में खेती का अर्थशास्त्र किसानों के खिलाफ है. मजदूरों और छोटे किसानों की बात तो दूर रही, मझोले और बड़े किसानों के सामने भी यह सवाल खड़ा है कि वे किस तरह बैंक का कर्ज चुकाएं और कैसे अपनी दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करें.
हर राज्य में किसानों की हालत एक जैसी है. सरकारें उन्हें झूठा दिलासा दे कर चुप करा देती हैं. आज खेती घाटे का सौदा साबित हो रहा है, इसीलिए छोटेबड़े सभी किसान परेशान हैं कि किस तरह अपनी आजीविका चलाएं. दुनिया में सब से ज्यादा विकास वाला देश होने के बावजूद लगातार हमारी विकास दर में गिरावट आ रही है. साल 1990 में कृषि की जो विकास दर 2-8 फीसदी थी, वह साल 2000-2010 के बीच घट कर 2.4 फीसदी रह गई और वर्तमान दशक में तो यह मात्र 2.1 फीसदी ही है.
खराब फसलों की वजह से किसानों की हालत काफी दयनीय रहती है. यदि सूखे की वजह से खेती खराब हो गई तो उन की जो लागत लगी है, उस के चलते घाटा होना तय है. सरकार अपने वादे के मुताबिक सही समर्थन मूल्य किसानों को नहीं दे पाती, जिस के कारण उनहें अपनी उपज को औनेपौने दामों पर बेचना पड़ता है. अकसर ज्यादा उत्पादन होने पर भंडारण का सही इंतजाम न होने से अनाज पड़ापड़ा सड़ जाता है.
केंद्र और राज्य सरकारों की कर्जमाफी योजना किसानों के लिए कारगर नहीं है, बल्कि यह तो खतरनाक साबित हो सकती है. यह योजना किसानों की समस्याओं का स्थायी समाधान नहीं है. इस से उन किसानों के लिए मुश्किल हो सकती है, जिन्हें कर्जमाफी नहीं मिली. इस से तमाम किसानों की दिमागी हालत खराब हो सकती है और वे डिप्रेशन की हालात में आ सकते हैं.
खेतीकिसानी के प्रति युवाओं में जज्बा पैदा करने के लिए कृषि को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करना जरूरी है. कृषि को आधुनिक और परंपरागत तरीकों से भी जोड़ने की जरूरत है. साथ ही समयसमय पर इस में प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करना भी जरूरी है.
नई दिल्ली: भारत सरकार ने 2 सितंबर, 2024 को घोषित डिजिटल कृषि मिशन के अंतर्गत डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना (डीपीआई) का निर्माण करने की दिशा में आगे बढ़ते हुए एक ऐतिहासिक उपलब्धि प्राप्त की है. गुजरात राज्य 5 दिसंबर, 2024 को किसानों की लक्षित संख्या का 25 फीसदी किसान आईडी बनाने वाला देश का पहला राज्य बन चुका है. यह सफलता भारत सरकार की ‘एग्री स्टैक पहल’ के एक भाग के रूप में एक व्यापक मानकसंचालित डिजिटल कृषि पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण कर ने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम का प्रदर्शन करता है.
किसान आईडी, आधारकार्ड पर आधारित किसानों की एक अनूठी डिजिटल पहचान है, जो राज्य की भूमि रिकौर्ड प्रणाली से सक्रिय रूप से जुड़ी हुई है, जिस का मतलब है कि किसान आईडी एक व्यक्तिगत किसान के भूमि रिकौर्ड विवरण में बदलाव के साथसाथ स्वचालित रूप से अपडेट होती है. डिजिटल कृषि मिशन के अंतर्गत डिजिटल रूप से प्राप्त फसल आंकड़े प्राप्त करने के साथ किसान आईडी का उद्देश्य केंद्रित लाभ प्रदान करना है
डिजिटल पहचान, कार्यवाही योग्य अंतर्दृष्टि एवं सूचित नीतिनिर्माण के लिए एक परिवर्तनकारी उपकरण के रूप में भी कार्य करेगा, जिससे अभिनव किसानकेंद्रित समाधान विकसित किए जा सके, कुशल कृषि सेवा वितरण सुनिश्चित किया जा सके और कृषि परिवर्तन के लिए एक डिजिटल पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण किया जा सके, जिस का लक्ष्य चिरस्थायी कृषि पर ध्यान केंद्रित करते हुए किसानों की आय में बढ़ोतरी करना है.
किसान आईडी निर्माण के लिए व्यापक कवरेज सुनिश्चित करने के लिए, भारत सरकार के कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय ने राज्यों के लिए एक बहु-आयामी रणनीति विकसित की है.
ये मोड किसान पहचान पत्र तैयार करने वाले चैनल हैं जैसे कि सेल्फ मोड (मोबाइल का उपयोग कर के किसानों द्वारा स्वपंजीकरण), सहायक मोड (प्रशिक्षित जमीनी कार्यकर्ता/स्वयंसेवकों द्वारा सहायता प्राप्त पंजीकरण), कैंप मोड (ग्रामीण क्षेत्रों में समर्पित पंजीकरण शिविर), सीएससी मोड (सामान्य सेवा केंद्रों के माध्यम से पंजीकरण) आदि.
डिजिटल कृषि मिशन ने किसान रजिस्ट्री बनाने के लिए प्रोत्साहन के रूप में कृषि के लिए डीपीआई एवं पूंजीगत परियोजनाओं हेतु विशेष केंद्रीय सहायता पर समझौता ज्ञापन के माध्यम से कृषि क्षेत्र के लिए डीपीआई निर्माण के लिए राज्यों और केंद्र सरकार के बीच एक सहयोगी प्रयास को सक्षम बनाया है.
इस के अलावा, डिजिटल कृषि मिशन के अंतर्गत, केंद्र सरकार तकनीकी दिशानिर्देश, संदर्भ अनुप्रयोग एवं कंप्यूटिंग क्षमता प्रदान कर, क्षमता बढ़ाकर एवं प्रशिक्षण प्रदान कर राज्यों को सक्षम बना रही है. भारत सरकार पंजीकरण शिविरों का आयोजन करने के लिए वित्तीय प्रोत्साहन एवं किसान आईडी तैयार करने में शामिल राज्य के कार्यकर्ताओं को प्रदर्शन आधारित प्रोत्साहन भी प्रदान करती है.
राज्य स्तर पर, पहल के मुख्य आकर्षणों में अंतर्विभागिय समन्वय एवं सहयोग, विशेष रूप से राजस्व और कृषि विभागों के बीच सहयोग शामिल हैं. राज्यों ने कृषि क्षेत्र में डीपीआई विकसित करने के लिए प्रक्रिया सुधारों सहित प्रशासनिक एवं तकनीकी परिवर्तनों को सक्षम बनाया है. राज्यों ने प्रगति की निगरानी करने, स्थानीय सहायता प्रदान करने और उत्पन्न डेटा की गुणवत्ता एवं सटीकता सुनिश्चित करने के लिए परियोजना प्रबंधन इकाइयों (पीएमयू) और समन्वय टीमों का भी गठन किया है.
गुजरात 25 फीसदी किसान आईडी (पीएम किसान में राज्य के कुल किसानों के बीच) के साथ अग्रणी है जब कि दुसरे राज्य भी अच्छी प्रगति कर रहे हैं. मध्य प्रदेश ने कम समय में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि प्राप्त की है, जो 9 फीसदी तक पहुंच गया है जब कि महाराष्ट्र 2 फीसदी पर है और उत्तर प्रदेश, असम, छत्तीसगढ़, ओडिशा और राजस्थान जैसे दुसरे राज्यों ने भी किसान आईडी बनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी है.
कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय इस परिवर्तनकारी यात्रा में राज्यों का समर्थन करने के लिए प्रतिबद्ध है और यह सुनिश्चित करता है कि प्रत्येक किसान डिजिटल कृषि क्रांति से लाभान्वित हों.
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देशभर में किसानों के हित को ध्यान में रखते हुए अनेक सरकारी, गैरसरकारी संस्थान किसानों को अनेक उन्नत कृषि तकनीकों से रूबरू कराते हैं, समयसमय पर अनेक ट्रेनिंग देते हैं, जिस से कृषि क्षेत्र उन्नति कर सके और इस से जुड़े किसानों की आय में भी इजाफा हो.
ऐसी ही कड़ी में राजस्थान के सीकर में विश्व युवक केंद्र और बजाज फाउंडेशन द्वारा संयुक्त रूप से 11 नवंबर से 15 नवंबर तक आयोजित ध्येय कार्यक्रम के तहत देश की सामाजिक संस्थाओं और कृषि उत्पादक संगठनों के करीब 100 प्रतिनिधियों को कृषि, जल, शिक्षा और आजीविका पर विषय पर प्रशिक्षित किया गया.
इस अवसर पर बजाज समूह के संस्थापक जमनालाल बजाज की जन्मस्थली सीकर और उस के आसपास के क्षेत्रों में जमनालाल कनीराम बजाज ट्रस्ट द्वारा 1963 से अब तक किए गए सतत प्रयासों से कृषि, जल, शिक्षा और आजीविका के क्षेत्र में किए गए उल्लेखनीय कार्यों को बेहतर ढंग से प्रस्तुत किया गया.
आयोजकों ने साझा किया ट्रेनिंग का उद्देश्य
Hari Bhai
ट्रेनिंग के पहले दिन बजाज फाउंडेशन में सीएसआर के प्रेसिडेंट हरिभाई मोरी ने जल संसाधनों के विकास पर विस्तृत जानकारी दी. उन्होंने सभी संस्थाओं से आह्वान किया कि अगर सभी सामाजिक संगठन एकजुट हो कर कृषि और जल पर काम करें, तो देश को विकास की नई परिभाषा गढ़ी जा सकती है.
उन्होंने बताया कि बजाज फाउंडेशन द्वारा सीकर में कृषि, जल पुनर्भरण, शिक्षा और आजीविका पर सघन और सफल रूप से काम किया जा रहा है, जिस के सफल अनुभवों से रूबरू कराने के लिए देश अभी तक 500 के करीब ऐसे सामाजिक सगठनों और किसान उत्पादक संस्थाओं को प्रशिक्षित किया गया है, जो खेती के जरीए आजीविका को बढ़ावा देने का काम कर रहे हैं.
Uday Shanker Singh
विश्व युवक केंद्र के मुख्य कार्यकारी अधिकारी उदय शंकर सिंह ने सभी अतिथियों का स्वागत करते हुए कार्यक्रम के उद्देश्यों पर प्रकाश डाला. इस दौरान बजाज फाउंडेशन और विश्व युवक केंद्र के कार्यों पर एक डौक्यूमेंट्री भी प्रस्तुत की गई.
उन्होंने बताया कि सीकर में गांव का पैसा गांव में और शहर का पैसा गांव में सपने को साकार करने के लिए सामाजिक संस्थाएं अहम भूमिका निभा सकती हैं. ऐसे में सीकर में अपनाए जा रहे इस मौडल को समझाना भी एक उद्देश्य रहा है.
उन्होंने यह भी बताया कि सीकर में लोगों ने बारिश के पानी को अपने घर की छत के जरीए संचयन करने का काम किया है. वर्षा जल संचयन की इस संरचना के लाभों को समझने के लिए यह ट्रेनिंग इन प्रतिभागियों के लिए काफी मददगार साबित हो रही है.
Ranbir Singh
विश्व युवक केंद्र में कार्यक्रम अधिकारी रणवीर सिंह ने बताया कि देश में आने वाले समय में जल संकट एक बड़ी समस्या के रूप में उभर कर सामने आ सकता है. ऐसे में जल की कमी वाले सीकर में ट्रेनिंग आयोजित किए जाने का मुख्य उद्देश्य यह था कि लोग यहां के जल संचयन, खेती और सिंचाई में जल प्रबंधन सहित आजीविका के उपायों को सीखें और अपने क्षेत्रों में लागू करें.
Anand Kumar
विश्व युवक केंद्र में ही कार्यक्रम अधिकारी आनंद कुमार ने कहा कि कृषि, जल पुनर्भरण, शिक्षा और आजीविका जैसे विषय पर लोगों को ज्यादा से ज्यादा जागरूक किए जाने की जरूरत है. ऐसे में सफल अनुभवों को एकदूसरे से साझा किए जाने के लिए सोशल मीडिया एक बड़ा माध्यम साबित हो सकता है. उन्होंने सभी प्रतिभागियों से आह्वान किया कि सभी लोग समयसमय पर सोशल मीडिया के जरीए सफलता की कहानियों को साझा करते रहें, जिस से बदलाव की कहानियों से सीख ले कर दूसरे क्षेत्रों में भी लोग इसे अपना पाएं.
पद्मश्री जगदीश पारीक ने कृषि के नवाचारों को किया साझा
पद्मश्री और गोभीमैन औफ इंडिया के नाम से विख्यात जगदीश पारीक ने कम पानी में खेती और बागबानी का अनुभव साझा किया और अपने नवाचारों पर जानकारी दी. कार्यक्रम में एफपीओ और कृषि उद्यमिता, प्राकृतिक खेती और मूल्य संवर्धन मौडल, आत्मनिर्भर परिवार, लघु पैमाने पर कृषि उद्यमिता, वर्षा जल पुनर्भरण संरचना पर प्रकाश डाला गया.
सीकर जिले के अजीतगढ़ निवासी किसान जगदीश प्रसाद पारीक ने बताया कि वे खेती में नएनए प्रयोग करते हैं. वे सब्जियों की नई किस्म तैयार करने से ले कर किसानों को और्गेनिक खेती के लिए प्रेरित करते हैं.
खेती के नाम कई रिकौर्ड
पद्मश्री जगदीश पारीक ने बताया कि वह अपने खेत में 25 किलो ढाई सौ ग्राम वजनी गोभी का फूल, 86 किलो कद्दू, 6 फीट लंबी घीया, 7 फीट लंबी तोरिया, 1 मीटर लंबा और 2 इंच का बैगन, 5 किलो गोल बैगन, ढाई सौ ग्राम मोटा प्याज, साढ़े 3 फीट लंबी गाजर और एक पेड़ से 150 मिर्ची तक उगा चुके हैं.
उन्होंने बताया कि सब से अधिक किस्में फूलगोभी की हैं. यही वजह है कि लोग इन्हें ‘गोभी मैन’ कह कर भी बुलाते हैं.
पद्मश्री और गोभीमैन औफ इंडिया के नाम से विख्यात जगदीश पारीक
54साल से कर रहे जैविक खेती
जगदीश पारीक ने बताया कि वह साल 1970 से और्गेनिक खेती कर रहे हैं. पिता के निधन के बाद पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर उन्होंने खेती करना शुरू कर दिया. उन्होंने गोभी से इस की शुरुआत की और इस की किस्मों को ले कर कई नए प्रयोग किए. उन्हें प्रदेश में जैविक और शून्य लागत की खेती के प्रणेता के रूप में पहचान मिली है. इसी वजह से साल 2018 में राष्ट्रपति रामनाथ कोविद ने उन्हें पद्मश्री से भी सम्मानित किया था.
रेतीले इलाके में सफल खेती
जगदीश पारीक का खेत ड्राई जोन का हिस्सा है. उन्होंने बताया कि बरसात के पानी से आने वाले बहाव को वह अपने खेत में डायवर्ट करते हैं, जिस से उन का कुआं रिचार्ज हो जाता है और सालभर वह उसी पानी का इस्तेमाल खेती के लिए करते हैं. एक बरसात के सीजन में वह 3 बार पानी की राह रोक कर अपने खेत में मोड़ देते हैं. जिसे जमीन सोख लेती है और उसी पानी से उन के खेत पर बना कुआं जीवंत हो जाता है.
खेती के अनुभवों को करते हैं साझा
जगदीश पारीक की खेती में प्रयोगधर्मिता से न सिर्फ किसान, बल्कि कृषि अधिकारी तक प्रभावित हैं. यही वजह है कि कृषि से जुड़े सैमिनार हों या वर्कशाप देशभर से जगदीश पारीक को बुलाया जाता है और उन के अनुभवों से सीखा जाता है.
फील्ड विजिट कर प्रतिभागी कृषि, जल और आजीविका के अनुभव से हुए रूबरू
विश्व युवक केंद्र और बजाज फाउंडेशन द्वारा सीकर में आयोजित पांचदिवसीय प्रशिक्षण और फील्ड विजिट कार्यक्रम के तीसरे दिन प्रतिभागियों ने लक्ष्मणगढ़ ब्लौक खिनवासर गांव के प्रगतिशील किसान अमरचंद काजला के प्राकृतिक खेती, मीठे नीबू के भूखंड और बायोगैस प्लांट का दौरा किया.
इस दौरान अमरचंद काजला ने अपने प्राकृतिक खेती के मौडल पर प्रतिभागियों को जानकारी दी. उन्होंने बताया कि वह जिस क्षेत्र में खेती कर रहे हैं, वहां का क्लाइमेट खेती के लिए बहुत जटिल है, फिर भी उन्होंने प्राकृतिक खेती के जरीए खेती में सफलता के नए आयाम गढ़ते हुए सफलता प्राप्त की है.
उन्होंने बताया कि उन के कृषि उत्पादों को बेचने के लिए वह एप का सहारा लेते हैं, जिस से उन्हें किसी तरह की समस्या का सामना नहीं करना पड़ता है. उन्होंने अपने गोबर गैस प्लांट की कार्यप्रणाली को दिखाते हुए उस के फायदे भी गिनाए.
बजाज फाउंडेशन में सीएसआर के प्रेसिडेंट हरिभाई मोरी ने अमरचंद काजला के गौ आधारित खेती के मौडल की प्रशंसा करते हुए उसे आगे बढ़ाते हुए पूरे देश में लागू करने पर जोर दिया. वीवाईके के मुख्य कार्यकारी अधिकारी उदय शंकर सिंह ने सीकर में अपनाए जा रहे जल उपयोग प्रणाली, जैविक, प्राकृतिक और गौ आधारित खेती को आज की आवश्यकता बताते हुए मानव स्वास्थ्य के लिए जरूरी बताया.
उन्होंने सीकर के आजीविका मौडल और भूमि जल पुनर्भरण मौडल की सराहना की और उसे अन्य राज्यों में भी लागू किए जाने की वकालत की.
इस के बाद दौरे पर आई टीम ने इस बलारा गांव में कृषि प्रसंस्करण इकाई तेल मिल और मसाला मिल का दौरा कर मूल्य संवर्धन और आजीविका से जुड़ी सफलता के बारे में जानकारी प्राप्त की.
ध्येय प्रोग्राम के तहत दौरे पर आई यह टीम सिंहोदरा गांव के पवन कुमार शर्मा के फार्म पर प्राकृतिक खेती और वृक्षारोपण के तहत 3 लेयर खेती, बाजरा प्रसंस्करण इकाई, खेत टांका और वृक्षारोपण के बारे में भी जानकारी प्राप्त की.
टीम ने ड्रिप के जरीए किन्नू और मीठे नीबू के बाग का अध्ययन करने के लिए रामचंद्र सेन के फार्म का दौरा किया. छत पर वर्षा जल संचयन संरचना के लाभों को समझने के लिए ओमप्रकाश मेहेरिया के फार्म का भी दौरा किया. इस दौरान टीम ने भूमि समतलीकरण गतिविधि के लाभों को समझने के लिए राजेश स्वामी से जानकारियां प्राप्त की.
राजस्थान के सूखे खेतों में फूलों की लहलहाती खेती ने किया हैरान
राजस्थान की जमीन रेतीली होने और कम बारिश के चलते देश के अन्य हिस्सों की तुलना में खेती किया जाना कठिन काम है, लेकिन सीकर जिले के तमाम किसानों ने बजाज फाउंडेशन के सहयोग के बारिश के पानी को संरक्षित करते हुए ड्रिप इरिगेशन के जरीए तमाम ऐसी फसलों को उगाने में सफलता पाई है, जिसे ज्यादा सिंचाई की जरूरत होती है. सीकर की इसी खेती की विधि को सीखने के लिए टीम जब तसरबाड़ी गांव पहुची, तो यहां के किसान भंवर लाल के एकीकृत खेती के मौडल करीब 40 एकड़ क्षेत्र में गेदे और गुलदाऊदी फूल की सफल खेती को देख कर अचंभित हो गई.
इस मौके पर किसान भंवर लाल ने बताया कि वह करीब 40 एकड़ क्षेत्र में पानी का बेहतर प्रबंधन करते हुए फूलों की खेती कर करीब 70 लाख रुपए की आमदनी हर साल कर लेते हैं. उन्होंने बताया कि वह बारिश के पानी को संरक्षित करते हैं, जिसे ड्रिप के जरीए फसल की सिंचाई करते हैं. उन्होने अपने फार्म, तालाब, पौलीहाउस, बगीचे का भ्रमण भी कराया और खेती के सफल मौडल की जानकारी दी.
प्रतिभागियों ने सराहा
विश्व युवक केंद्र और बजाज फाउंडेशन द्वारा कृषि, जल पुनर्भरण, शिक्षा और आजीविका विषय पर आयोजित ट्रेनिंग और एक्सपोजर विजिट कार्यक्रम में देश के करीब 12 राज्यों से 100 से भी अधिक प्रतिभागी शामिल हुए. प्रतिभागियों ने राजस्थान के सीकर में कम पानी में किए जा रहे सफल खेती और आजीविका के मौडल को सराहा और अपनेअपने क्षेत्रों में लागू किए जाने पर बल दिया.
उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले से नैशनल अवार्डी किसान राममूर्ति मिश्र ने कहा कि उन्हें सीकर में अपनाए जा रहे एक लिटर पानी में पौधारोपण के सफल प्रयोग ने काफी प्रभावित किया है. उन्होंने कहा कि जब राजस्थान में हरियाली बढ़ाई जा सकती है, तो देश के सिंचित और वर्षा वाले क्षेत्रों में इसे और भी सफलतापूर्वक लागू किया जा सकता है.
ट्रेनिंग में आए रूरल अवेयरनेस फौर कम्युनिटी इवोलूशन के अध्यक्ष नितेश शर्मा ने सीकर में किसानों द्वारा जल संसाधन विकास के लिए किए जा रहे प्रयासों को सराहा. उन्होंने कहा कि सीकर में किसानों द्वारा संचालित एफपीओ कृषि उद्यमिता की मिसाल है. इस से देश के अन्य किसानों को सीखने में मदद मिलेगी.
विश्वनाथ चौधरी ने विजिट के दौरान प्राकृतिक खेती और मूल्य संवर्धन के मौडल और उस से आत्मनिर्भर बने किसान परिवारों के अनुभवों को साझा किया. प्रतिभागी नीलम मिश्रा ने एसएचजी फेडरेशन के जरीए सीकर में हुए महिला सशक्तीकरण को सराहा.
आमतौर पर तो पूरा साल ही खेती के लिहाज से खरा और खास होता है, पर हर महीने की अपनी अलगअलग अहमियत होती है.
चढ़ती सर्दी के मौसम वाले नवंबर महीने के दौरान भी खेतों में खासी गहमागहमी का आलम रहता है. मार्च से अक्तूबर के दौरान तपते मौसम में सुलगने के बाद नवंबर में किसान जिस्मानी तौर पर काफी राहत और सुकून महसूस करते हैं.
दो वक्त की रोटी से जुड़ी सब से अहम फसल गेहूं की बोआई का सिलसिला नवंबर से शुरू हो जाता है. तमाम खास फसलों के बीच गेहूं का अपना अलग और सब से ज्यादा वजूद होता है. भले ही मद्रासी, बंगाली और बिहारी नस्ल के लोग ज्यादा चावल खाते हों, मगर भारत में रोटी खाने वालों की तादाद सब से ज्यादा है. इसीलिए गेहूं की खेती का वजूद कुछ ज्यादा ही हो जाता है. उसी लिहाज से यह फसल किसानों की माली हालत बेहतर बनाने में भी खास साबित होती है.
माहिर किसान नवंबर की शुरुआत से ही गेहूं की बोआई के लिए खेतों की तैयारी में जुट जाते हैं. इन तैयारियों में मिट्टी की जांच कराना सब से खास होता है. पेश है नवंबर के दौरान होने वाले खेती संबंधी खास कामों का ब्योरा:
* जैसा कि पहले जिक्र किया जा चुका है, उसी के तहत गेहूं की बोआई से पहले अपने खेत की मिट्टी की जांच जरूर कराएं. मिट्टी की जांच किसी अच्छी लैब में ही कराएं ताकि सही नतीजे मिल सकें.
* गेहूं बोने से पहले खेतों में अच्छी तरह सड़ी हुई गोबर की खाद या कंपोस्ट जरूर डालें. खाद कितनी मात्रा में डालनी है, यह जानने के लिए अपने नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिक से बात करें और उस की सलाह के मुताबिक ही काम करें. गेहूं की बोआई का दौर 7 नवंबर से 25 नवंबर के बीच पूरे जोरशोर से चलता है.
* बोआई के लिए अपने इलाके के हवापानी के मुताबिक ही गेहूं की किस्मों का चुनाव करें. इस के लिए भी अपने इलाके के कृषि वैज्ञानिक से ही सलाह लें. इस मामले में उन से बेहतर राय और कोई नहीं दे सकता. वैज्ञानिक की सलाह के मुताबिक ही गेहूं के बीजों का इंतजाम करें.
* गेहूं के बीज किसी नामी कंपनी या सरकारी संस्था से ही लें, क्योंकि उन के बीज उम्दा होते हैं और उन्हें उपचारित करने की जरूरत नहीं होती है. दरअसल मशहूर बीज कंपनियां और सरकारी संस्थाएं अपने बीजों का उपचार पहले ही कर चुकी होती हैं, लिहाजा उन्हें फिर से उपचारित करने की कोई जरूरत नहीं होती है.
* कई बार छोटे किसान बड़े किसानों से ही बीज खरीद लेते हैं, क्योंकि ये बीज उन्हें काफी वाजिब दामों पर मिल जाते हैं. ऐसा करने में कोई बुराई या खराबी नहीं है, मगर ऐसे में बीजों को अच्छी फफूंदीनाशक दवा से उपचारित कर लेना चाहिए. बीजों को उपचारित किए बगैर बोआई करने से पैदावार घट जाती है.
* अगर छिटकवां विधि से गेहूं की बोआई करने का इरादा है, तो ऐसे में 125 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से लगेंगे. वैसे छिटकवां तरीके से बोआई करने पर काफी बीज बेकार चले जाते हैं, लिहाजा इस विधि से बचना चाहिए. मौजूदा दौर के कृषि वैज्ञानिक भी बोआई की छिटकवां विधि अपनाने की सलाह नहीं देते हैं.
* वैज्ञानिकों के मुताबिक सीड ड्रिल मशीन से गेहूं की बोआई करना मुनासिब रहता है. इस विधि के लिए प्रति हेक्टेयर महज 100 किलोग्राम बीजों की जरूरत होती है. इस विधि से बीजों की कतई बरबादी नहीं होती है.
* हमेशा गेहूं की बोआई लाइनों में ही करें और पौधों के बीच 20 सेंटीमीटर का फासला रखें. 2 पौधों के बीच फासला रखने से पौधों की बढ़वार बेहतर ढंग से होती है और खेत की निराईगुड़ाई करने में सरलता होती है.
* वैसे तो मिट्टी की जांच रिपोर्ट के मुताबिक ही खाद व उर्वरक वगैरह का इस्तेमाल करना चाहिए, मगर कई जगहों के किसानों के लिए मिट्टी की जांच करा पाना मुमकिन नहीं हो पाता. ऐसी हालत में प्रति हेक्टेयर 120 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस और 40 किलोग्राम पोटाश का इस्तेमाल करना चाहिए.
* चने को गेहूं का जोड़ीदार अनाज माना जाता है. गेहूं के साथसाथ नवंबर में चने की बोआई का आलम भी रहता है. चने की बोआई 15 नवंबर तक कर लेने की सलाह दी जाती है.
* चने की बोआई के लिए साधारण चने की पूसा 256, पंत जी 114, केडब्ल्यूआर 108 और के 850 किस्में बेहतरीन होती हैं. यदि काबुली चने की बोआई करनी है तो पूसा 267 और एल 550 किस्में उम्दा होती हैं.
* चने की खेती के मामले में भी अगर हो सके तो मिट्टी की जांच करा कर वैज्ञानिकों से खादों व उर्वरकों की मात्रा तय करा लें, अगर ऐसा संभव न हो, तो प्रति हेक्टेयर 45 किलोग्राम फास्फोरस, 30 किलोग्राम पोटाश और 20 किलोग्राम नाइट्रोजन का इस्तेमाल करें.
* चने के बीजों को राइजोबियम कल्चर और पीएसबी कल्चर से उपचारित कर के बोएं. ऐसा करने से पौधे अच्छे निकलते हैं.
* बोआई के लिए प्रति हेक्टेयर बड़े आकार के दानों वाली चने की किस्मों के 100 किलोग्राम बीज इस्तेमाल करें. मध्यम और छोटे आकार के दानों वाली चने की किस्मों के 80 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर के हिसाब से इस्तेमाल करें.
* अमूमन मटर व मसूर की बोआई का काम अक्तूबर महीने के दौरान ही निबटा लिया जाता है, लेकिन अगर किसी वजह से मटर व मसूर की बोआई बाकी रह गई हो, तो उसे 15 नवंबर तक जरूर निबटा लें.
* मटर की बोआई के लिए करीब 100 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर के हिसाब से लगते हैं, जबकि मसूर की बोआई के लिए करीब 40 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से लगते हैं.
* मसूर और मटर के बीजों को बोने से पहले राइजोबियम कल्चर से उपचारित करना जरूरी है. ऐसा न करने से पैदावार पर बुरा असर पड़ता है.
* अक्तूबर में बोई गई मटर व मसूर के खेतों में अगर नमी की कमी नजर आए, तो जरूरत के मुताबिक सिंचाई करें. इस के अलावा खेत की बाकायदा निराईगुड़ाई भी करें ताकि खरपतवार काबू में रहें.
* मसूर और मटर की फसलों पर यदि तना छेदक या पत्ती सुरंग कीटों का प्रकोप दिखाई दे, तो मोनोक्रोटोफास 3 ईसी दवा का इस्तेमाल करें.
* आमतौर पर नवंबर में ही जौ की बोआई भी की जाती है. अच्छी तरह तैयार किए गए खेत में 25 नवंबर तक जौ की बोआई का काम निबटा लेना चाहिए.
* वैसे तो जौ की पछेती फसल की बोआई दिसंबर के अंत तक की जाती है, पर समय से बोआई करना बेहतर रहता है. आमतौर पर देरी से बोई जाने वाली फसल से उपज कम मिलती है.
* जौ की बोआई में हमेशा सिंचित और असिंचित खेतों का फर्क पड़ता है. उसी के हिसाब से कृषि वैज्ञानिक से बीजों की मात्रा पूछ लेनी चाहिए.
* नवंबर के दौरान अरहर की फलियां पकने लगती हैं, लिहाजा उन पर नजर रखनी चाहिए. जब 75 फीसदी फलियां पक कर तैयार हो जाएं, तो उन की कटाई करें.
* अरहर की देरी से पकने वाली किस्मों पर यदि फली छेदक कीट का प्रकोप नजर आए, तो मोनोक्रोटोफास 36 ईसी दवा की 600 मिलीलीटर मात्रा पर्याप्त पानी में मिला कर फसल पर छिड़काव करें.
* सरसों के खेत में अगर फालतू पौधे हों, तो उन की छंटाई करें. निकाले गए पौधों को मवेशियों को खिलाएं. फालतू पौधे निकालते वक्त खयाल रखें कि बचे पौधों के बीच करीब 15 सेंटीमीटर का फासला रहे.
* सरसों की बोआई को अगर 1 महीना हो चुका हो, तो नाइट्रोजन की बची मात्रा सिंचाई कर के छिटकवां तरीके से दें.
* सरसों के पौधों को आरा मक्खी व माहू कीट से बचाने के लिए इंडोसल्फान दवा की डेढ़ लीटर मात्रा 800 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.
* सरसों के पौधों को सफेद गेरुई और झुलसा बीमारियों से बचाने के लिए जिंक मैंगनीज कार्बामेट 75 फीसदी दवा की 2 किलोग्राम मात्रा पर्याप्त पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.
* नवंबर महीने के दौरान तोरिया की फलियों में दाना भरता है. इस के लिए खेत में भरपूर नमी होनी चाहिए. अगर नमी कम लगे तो फौरन खेत को सींचें ताकि फसल उम्दा हो.
* अपने आलू के खेतों का जायजा लें. अगर खेत सूखे दिखाई दें, तो फौरन सिंचाई करें ताकि आलुओं की बढ़वार पर असर न पड़े.
* अगर आलू की बोआई को 5-6 हफ्ते बीत चुके हों, तो 50 किलोग्राम यूरिया प्रति हेक्टेयर की दर से डालें और सिंचाई के बाद पौधों पर ठीक से मिट्टी चढ़ाएं.
* अक्तूबर के दौरान लगाई गई सब्जियों के खेतों का मुआयना करें और जरूरत के मुताबिक निराईगुड़ाई कर के खरपतवार निकालें. खेत सूखे नजर आएं, तो उन की सिंचाई करें.
* सब्जियों के पौधों व फलों पर अगर बीमारियों या कीड़ों का प्रकोप नजर आए, तो कृषि वैज्ञानिक से पूछ कर मुनासिब दवा का इस्तेमाल करें.
* अपने लहसुन के खेतों का मुआयना करें. अगर खेत सूखे लगें, तो उन की सिंचाई करें. इस के अलावा खेतों की तरीके से निराईगुड़ाई कर के खरपतवारों का सफाया करें.
* लहसुन के खेतों में 50 किलोग्राम यूरिया प्रति हेक्टेयर की दर से डालें. इस से फसल को काफी लाभ होगा.
* अगर लहसुन की पत्तियों पर पीले धब्बों का असर नजर आए, तो इंडोसल्फान एम 45 दवा के 0.75 फीसदी घोल का छिड़काव करें.
* भले ही आम का सीजन आने में अभी काफी वक्त है, फिर भी आम के पेड़ों का खयाल रखना जरूरी है. मिलीबग कीट से बचाव के लिए पेड़ों के तनों के चारों ओर पौलीथीन की करीब 30 सेंटीमीटर चौड़ी पट्टी बांध कर उस के सिरों पर ग्रीस लगा दें.
* आम के पेड़ों के तनों व थालों में फौलीडाल पाउडर छिड़कें. इस के साथ ही पेड़ों की बीमारी के असर वाली डालियों व टहनियों को काट कर जला दें.
* नवंबर की शुरुआती सर्दी से अपने मुरगेमुरगियों को बचाने का बंदोबस्त करें.
* सर्दी के आलम में अपने तमाम मवेशियों का पूरापूरा खयाल रखें, क्योंकि सर्दी उन के लिए भी घातक होती है.
* अपनी गायों, भैंसों व बकरियों वगैरह पर पैनी निगाह रखें. अगर उन में बुखार के लक्षण नजर आएं तो फौरन जानवरों के डाक्टर को बुलवाएं.
रामजी दुबे ग्राम नुआंव, मिर्जापुर , उत्तर प्रदेश से हैं. और बड़े पैमाने पर ड्रैगन फ्रूट की खेती कर लगभग 15 लाख सालाना का मुनाफा ले रहे हैं. इसके अलावा स्ट्राबेरी, खीरा, केला आदि की खेती करते हैं. पॉलीहाउस में नर्सरी तैयार करते हैं. पशुपालन भी करते हैं जिससे उन्हें खेती में बाजार से रासायनिक उर्वरक भी नहीं खरीदना पड़ता. इन्हीं खासियतों के चलते हाल ही में उन्हें उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में फार्म एन फूड कृषि सम्मान मिला. जिसके तहत उन्हें ‘बेस्ट फार्मर अवार्ड फार्मर इन इंटीग्रेटेड फार्मिंग’ सम्मान दिया गया.
रामजी दुबे ने साल 2018 से एकीकृत बागबानी के तहत 2000 वर्गमीटर एरिया में पौलीहाउस बनाया है. उस के बाद पौलीहाउस में उच्च गुणवत्ता का खरबूजा, रंगीन शिमला मिर्च एवं खुले खेत में केला, स्ट्रौबेरी, पपीता एवं एक हेक्टेयर में ड्रैगन फ्रूट की खेती आरंभ की, जिस से उन्हें 12 महीने कुछ न कुछ फसल उत्पाद मिलता रहता है और पूरे साल अच्छीखासी आमदनी होती रहती है.
किसान रामजी दुबे ने बताया कि ड्रैगन फ्रूट की खेती से उन्हें 10 से 15 लाख की सालाना आमदनी होती है. रामजी दुबे पर्यावरण के प्रति भी लोगों को जागरूक करने का काम कर रहे हैं. इस के तहत वे अपने जिले और आसपास के क्षेत्र के अलावा उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार आदि अनेक राज्यों में भी एक लाख से अधिक पौधों का वितरण कर चुके हैं. उन्हें जिला स्तर, राज्य स्तर के साथसाथ राष्ट्रीय पुरस्कारों से भी सम्मानित किया जा चुका है.
रामजी दुबे का कहना है कि उन्हें स्ट्रौबेरी की खेती से 5 से 6 महीने में एक एकड़ में 8 से 10 लाख रुपए तक की आमदनी हो जाती है. खेती में तकरीबन 2 से 3 लाख रुपए का खर्च भी आता है. इस प्रकार तकरीबन 7 लाख रुपए के आसपास शुद्ध आमदनी हो जाती है.
इसी प्रकार रामजी दुबे को रंगीन शिमला मिर्च से तकरीबन 8 से 10 लाख रुपए तक की आमदनी हो जाती है, वहीं पशुपालन के तहत वे गौपालन भी करते हैं, जिस के गोबर से वह बिना किसी लागत के वर्मी कंपोस्ट तैयार करते हैं. इस से उन्हें अपनी खेती में बाजार से उर्वरक नहीं खरीदना होता है.
रामजी दुबे साल 2018 के पहले पारंपरिक तरीके से गेहूं, धान, चना, मटर, सरसों की खेती करते थे, जिस से उन्हें बहुत अच्छा मुनाफा नहीं होता था, परंतु आज एकीकृत खेती के माध्यम से बागबानी के द्वारा साल में 25 से 30 लाख रुपए तक की आमदनी हो जाती है. वे अब पपीता की खेती भी करते हैं. पपीते की पौध जूनजुलाई माह में लगाते हैं, जिस की हार्वेस्टिंग अगले वर्ष मार्चअप्रैल के महीने में शुरू हो जाती है. उस समय नवरात्र एवं अन्य त्योहारों के कारण डिमांड अच्छीखासी रहती है. उन्हें एक एकड़ में तकरीबन 5 से 6 लाख रुपए का मुनाफा एक एकड़ में हो जाता है.
इस तरह से रामजी दुबे को समेकित व एकीकृत खेती से अनेक लाभ हो जाते हैं. आज अपने क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि जिले एवं आसपास के दूसरे क्षेत्रों में आप प्रेरणा के स्रोत बने हुए हैं. आसपास के जिलों से क्षेत्र से तमाम किसान तमाम सरकारी अधिकारी उन के खेतों को देखने आते हैं, जिस से उन्हें भी काफी प्रेरणा मिलती है.
हाल ही में पुष्पा गौतम को दिल्ली प्रेस, नई दिल्ली द्वारा लखनऊ में राज्यस्तरीय फार्म एन फूड ‘बेस्ट फार्मर अवार्ड इन मार्केटिंग’ से नवाजा गया है.
पुष्पा गौतम बस्ती जिले के बिहरा खास गांव से हैं. आप अनेक कृषि उत्पादों जैसे मल्टीग्रेन आटा, चावल, चना, अचारमुरब्बा, आदि की प्रोसेसिंग कर बाजार से कई गुना अधिक मुनाफा कमाने के साथसाथ अनेक लोगों को ट्रेनिंग व रोजगार भी दे रही हैं.
पुष्पा गौतम एमएबीएड हैं. फैजाबाद विश्वविद्यालय से मुख्य 2020 में कोरोना के समय एनआरएलएम के तहत आप समूह से जुड़ीं और सरकार द्वार समूह में दी जाने वाली अनेक प्रकार की ट्रेनिंग सुविधायों का लाभ उठाया. अनेक प्रकार के प्रशिक्षण लेने के बाद पुष्पा गौतम को अनेक जानकारियां मिलीं. किस तरह से नए रोजगार का सृजन हो और उस को शुरू करने के लिए फंड कहां से मिल सकेगा, इस पर उन्होंने जानकारी प्राप्त की. उस के बाद पुष्पा गौतम ने ब्लौक, कृषि विभाग, उद्यान विभाग, गन्ना विभाग, नाबार्ड और आरसेटी से जुड़ कर आज अनेक उत्पादों की प्रोसैसिंग शुरू की.
इन दिनों पुष्पा गौतम मल्टीग्रेन आटा, मक्का आटा, बाजरा आटा, चना बेसन, मसाला, अचार, मुरब्बा, आवला लड्डू आदि की प्रोसैसिंग और पैकिंग कर अच्छा मुनाफा कमा रही हैं. अनेक तैयार उत्पादों की पैकिंग के लिए मशीन भी समूह द्वारा प्राप्त फंड से खरीदी गई हैं.
इन दिनों पुष्पा गौतम तकरीबन 30 महिलाओं के साथ काम कर रही हैं और उन्हें स्वावलंबी बनाने का काम कर रही हैं.
इस के अलावा पुष्पा गौतम ने जनवरी, 2021 से ले कर सितंबर, 2024 तक तकरीबन 300 महिलाओं को नर्सरी, वर्मी कंपोस्ट, डेयरी फार्मिंग, वाशिंग पाउडर बनाना, अचार, मसाला, पापड़, मोमबती आदि पर ट्रेनिंग करा कर उन को रोजगार से जोड़ने का काम किया है. उन की इन सफलताओं को देखते हुए नाबार्ड से उन्हें एक ग्राम दुकान स्वीकृत की और नाबार्ड ने 2 साल में साढ़े 3 लाख रुपए का फंड मुहैया कराया. उन के समूह की अनेक महिलाओं द्वारा बनने वाले उत्पाद की मार्केटिंग और सप्लाई में काफी मदद मिल रही है. उन्हें इस काम के लिए ब्लौक, जिला, केवीके, नाबार्ड आदि से समयसमय पर सम्मानित किया जाता रहा है.
लखनऊ में आयोजित दिल्ली प्रैस द्वारा ‘फार्म एन फूड’ कृषि सम्मान अवार्ड 2024 में उत्तर प्रदेश के ग्राम बहुअन मदार माझा की साधना सिंह को फार्म एन फूड ‘बैस्ट डेयरी ऐंड एनिमल कीपर अवार्ड’ से सम्मानित किया गया.
साधना सिंह साल 2012 से कृषि क्षेत्र से जुड़ी हुई हैं. इस समय वे कृषि आधारित कई व्यवसाय भी कर रही हैं. उन्होंने 2 भैंसों के साथ पशुपालन का काम शुरू किया और इस समय उन के पास 35 दुधारू भैंसें हैं. उन के दूध से पारंपरिक बिलोना विधि से भैंस का देशी घी तैयार किया जाता है, जो ‘अवध गोल्ड’ के नाम से बिकता है.
साधना सिंह के पास 2 पोल्ट्री फार्म हैं, जिस में एक पोल्ट्री फार्म 10,000 वर्गफुट का है, जिस से उन्हें सालाना 7 से 8 लाख का मुनाफा होता है. इस के अलावा 2 हेक्टेयर में वे मछलीपालन व्यवसाय से भी जुड़ी हैं, जिस से उन्हें सालाना 10 लाख का लाभ प्राप्त होता है.
साधना सिंह का कहना है कि हम पंगास मछली का उत्पादन करते हैं. यह हाईडेंसिटी में उत्पादन होने वाली मछली है, जिस से ज्यादा मुनाफा होता है. मछलीपालन में फायदा होते देख कई महिला किसानों ने मछलीपालन शुरू किया है, जिस से गांव में अनेक महिला किसान मछलीपालन से फायदा उठा रही हैं.
इस के अलावा उन्होंने बताया कि वे 40 एकड़ में गन्ने की खेती और 20 एकड़ में धान की खेती करती हैं. 2 एकड़ में वे जैविक खेती से धान और गेहूं उत्पादन करते हैं.
साधना सिंह के पास सोलर ड्रायर है, जिस में आम, टमाटर, तुलसी के पत्तों को सुखा कर बेचा जाता है. कृषि विभाग द्वारा मसूर उत्पादन के लिए उन्हें जिले में प्रथम पुरस्कार दिया गया है. नाबार्ड द्वारा जिले में 8 मार्च, 2024 (महिला दिवस) को ‘सक्रिय महिला’ का प्रथम पुरस्कार दिया गया. कृषि विज्ञान केंद्र द्वारा 15 अगस्त के शुभ अवसर पर प्रगतिशील महिला किसान के रूप में उन्हें सम्मानित किया गया. एनआरएलएम द्वारा मुरगीपालन के लिए ‘शक्ति वंदन सम्मानपत्र’ दिया गया. उपकृषि निदेशक गोंडा द्वारा कृषि क्षेत्र में महिला प्रगतिशील किसान से रूप में प्रशस्तिपत्र दिया गया. जिला अधिकारी गोंडा द्वारा जैविक खेती के लिए प्रशस्तिपत्र दिया गया
राजधानी लखनऊ में आयोजित दिल्ली प्रैस की कृषि पत्रिका ‘फार्म एन फूड’ की ओर से कृषि सम्मान अवार्ड 2024 में उत्तराखंड के नारायण दत्त जोशी को ‘बैस्ट फार्मर अवार्ड इन हार्वेस्टिंग ऐंड प्रोसैसिंग’ का सम्मान दिया गया.
नारायण दत्त जोशी लगभग 30 वर्षों से खेती कर रहे हैं, जिस में उन के द्वारा मुख्य रूप से अदरक, गेहूं, मक्का, सरसों और राजमा की खेती की जाती है. इन सभी फसलों में इन के क्षेत्र की सब से महत्त्वपूर्ण व लाभप्रद फसल अदरक है. अदरक एक औषधीय जड़ वाली फसल है. अदरक की फसल को जमीन की खुदाई कर उसे निकाला जाता है, तत्पश्चात उसे प्रोसैस कर के उस से सोंठ बनाई जाती है. सोंठ के मंडी में अच्छे दाम मिलते हैं.
नारायण दत्त जोशी ने बताया कि सोंठ 2 प्रकार की होती हैं. एक सुखझोल सोंठ और दूसरी पनझोल सोंठ.
नारायण दत्त जोशी से प्रेरणा ले कर क्षेत्र के अनेक किसान अदरक की खेती करते हैं. इस के अलावा सोंठ प्रोसैसिंग में कार्य करने वाली अनेक महिलाओं को भी रोजगार प्राप्त होता हैं. सोंठ के द्वारा ही हमारा क्षेत्र तरक्की की ओर अग्रसर होता जा रहा है.
ग्राम कोटी अठुरर्वाला अठूरवाला, जनपद देहरादून, उत्तराखंड की रहने वाली पशुपालक पुष्पा नेगी पशुपालन के क्षेत्र में नवीनतम तकनीक अपना कर स्थानीय किसानों को भी जागरूक करती हैं. उनके इन्ही योगदानों के लिए उन्हें दिल्ली प्रैस की कृषि पत्रिका ‘फार्म एन फूड’ द्वारा लखनऊ में आयोजित कृषि सम्मान अवार्ड 2024 में ‘बैस्ट डेयरी ऐंड एनिमल कीपर अवार्फाड ‘ से सम्मानित किया गया.
पशुपालक पुष्पा नेगी के द्वारा साल 2016 से गोपालन किया जा रहा है और इस समय उन के पास लगभग 30 गाय हैं, जिन में होल्सटीन फ्रीसियन और साहीवाल दोनों नस्ल की गई गाय शामिल हैं. पुष्पा नेगी गाय के दूध से घी, छाछ, मक्खन आदि बना कर बाजार में अच्छे दामों पर बेचती हैं और प्रकृति संरक्षण को ध्यान में रखते हुए उन के यहां गाय के गोबर से दीया दीपक, मूर्ति, समरानी कप, गौ काष्ठ एवं वर्मी कंपोस्ट आदि चीजें तैयार की जाती हैं. इस काम में उन्होंने अनेक लोगों को जोड़ रखा है, जिस से उन्हें भी रोजगार मिल रहा है.
प्रगतिशील पशुपालक के रूप में पुष्पा नेगी को मुख्यमंत्री द्वारा ‘किसानश्री सम्मान’, हंस फाउंडेशन और आरडीसी -2024 में केंद्रीय मंत्री परशोत्तम रूपाला द्वारा दिल्ली में सम्मानित किया गया जा चुका है. पुष्पा नेगी अपने खेत में उत्तराखंड का प्रसिद्ध अनाज मंडावा उगा रही हैं, जो अपने पौष्टिक गुणों के लिए पूरी दुनिया में जाना जाता है. पुष्पा नेगी का कहना है कि उन के इन कामों में परिवार ने सदैव पूरा सहयोग किया है.
कर्नल हरिश्चंद्र सिह लखनऊ, उत्तरप्रदेश से हैं और 54 वर्ष की उम्र में सैन्य सेवा से सेवानिवृत्त होने के बाद वर्ष 2016 में जनपद बाराबंकी से जैविक खेती की शुरुआत की. उनकी असाधारण उपलब्धियों के लिए दिल्ली प्रैस की कृषि पत्रिका ‘फार्म एन फूड’ आयोजित कृषि सम्मान अवार्ड 2024 में उन्हें ‘बैस्टफार्मर अवार्ड इन और्गेनिक फार्मिंग अवार्ड‘ से सम्मानित किया गया.
उन की पारिवारिक पृष्ठभूमि का भी इस में योगदान रहा.
कर्नल हरिश्चंद्र सिंह का उद्देश्य उन फलों, फसलों और सब्जियों को उगाना है, जो स्वास्थ्यवर्धक हों, जिन में कम से कम देखरेख हो, कम से कम लागत लगे और अच्छा मुनाफा हो. इस क्रम में उन्होंने चिया सीड, ड्रैगन फ्रूट, एप्पल बेर, जिमीकंद और कालेबैगनी आलू की खेती से अपने नए शौक की शुरू की. इस में वे काफी हद तक सफल रहे. बाद में उन्होंने अपनी फसलों में केला, लाल गूदे वाले आलू, क्वीनोआ, रामदाना, काले चावल और काले गेहूं आदि को भी सम्मिलित किया.
लगभग 4 साल पहले कर्नल हरिश्चंद्र सिंह के चिया सीड की खेती की प्रशंसा देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने ‘मन की बात कार्यक्रम’ में करते हुए इसे आत्मनिर्भर भारत में एक बड़ा कदम बताया.
स्वास्थ्यवर्धक एवं लाभप्रद फसलों, फलों तथा सब्जियों की जैविक खेती स्वयं करना तथा ज्यादा से ज्यादा किसानों को इस मुहिम से जोड़ना अब कर्नल हरिश्चंद्र सिंह का जुनून सा बन गया है. उन्होंने बताया कि साल 2023 में भारत सरकार द्वारा प्रकाशित ‘कौफी टेबल बुक’ में मुझे एक प्रगतिशील किसान के रूप में स्थान दिया गया है. यह मेरे लिए गर्व की बात है.
कर्नल हरिश्चंद्र सिंह का कहना है कि हमारे इस प्रयास में कृषि क्षेत्र से जुड़ी संस्थाओं, कृषि विशेषज्ञों, प्रगतिशील कृषकों, पत्र पत्रिकाओं एवं मीडियाकर्मियों का बहुत बड़ा योगदान है, जो हमारे मार्ग दर्शक और प्रेरणास्रोत हैं. इन से प्रेरित हो कर अब मैं अपने जैविक खेती के रकबे को बढ़ा रहा हूं, साथ ही श्रीअन्न और नीबू की खेती भी शुरू कर चुका हूं.