सर्दी की गुलाबी फसल शलगम (Turnip)

शलगम जड़ वाली हरी फसल है. इसे ठंडे मौसम में हरी सब्जी के रूप उगाया व इस्तेमाल किया जाता है. शलगम का बड़ा साइज होने पर इस का अचार भी बनाया जाता है. ठंडे मौसम की फसल होने से कम तापमान पर भी ज्यादा स्वाद होता है. बोआई के 20-25 दिनों के बाद से ही शलगम को साग के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.

शलगम की जड़ों व पत्तियों में ज्यादा पोषक तत्त्व पाए जाते हैं. इस से ज्यादा मात्रा में कैल्शियम और विटामिन ‘सी’ मिलता है. साथ ही इस में अन्य पोषक तत्त्व फास्फोरस, कार्बोहाइड्रेट्स वगैरह भी भरपूर मात्रा में मिलते हैं.

शलगम की फसल को सभी तरह की जमीन में उगाया जा सकता है. लेकिन अच्छी पैदावार के लिए हलकी चिकनी दोमट या बलुई दोमट मिट्टी वाली जमीन बेहतर होती है. जल निकासी भी ठीक होनी चाहिए, वरना पानी भरा रहने पर फसल खराब हो सकती है.

शलगम सर्दी की फसल होने के कारण ज्यादा ठंड को भी सहन कर लेती है. अच्छी बढ़वार के लिए ठंड व नमी वाली जलवायु सही रहती है. इसी कारण पहाड़ी इलाकों में शलगम की अच्छीखासी पैदावार मिलती है.

अच्छी पैदावार के लिए खेत की जुताई अच्छी तरह करनी चाहिए, जिस से जमीन भुरभुरी हो जाए. साथ ही घास व ठूंठ वगैरह को बाहर निकाल कर नष्ट कर दें और छोटीछोटी क्यारियां बना लें, ताकि इन की देखभाल अच्छी तरह से हो सके.

उपज से फायदा : शलगम जब छोटेछोटे साइज की हों, तभी उन्हें मंडी में साग के रूप में बेचा जाता है और बाद में जब शलजम बड़ी हो जाती है, तो उसे लोग अचार व सब्जी वगैरह में भी इस्तेमाल करते हैं.

यह कम समय में तैयार होने वाली सामान्य फसल है. इस की खास देखभाल की भी जरूरत नहीं होती और किसान को मुनाफा भी ज्यादा मिलता है.

शलगम की कुछ खास प्रजातियां

लाल 4 : यह किस्म जल्दी तैयार होने वाली है. लाल किस्म को ज्यादातर सर्दी के मौसम में लगाते हैं. इस की जड़ें गोल, लाल और मध्यम आकार की होती हैं. फसल 60 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है.

सफेद 4 : इस किस्म को ज्यादातर बरसात के मौसम में लगाते हैं. यह जल्दी तैयार होती है और इस की जड़ों का रंग बर्फ जैसा सफेद होता है. गूदा चरपराहट वाला होता है. ये 50-55 दिनों में तैयार हो जाती है. इस की उपज 200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर मिलती है.

परपल टोप : इस किस्म की जड़ें बड़े आकार की होती हैं. ऊपरी भाग बैगनी, गूदा सफेद और कुरकुरा होता है. यह ज्यादा उपज देती है. इस का गूदा ठोस और ऊपर का भाग चिकना होता है.

पूसा स्वर्णिमा : इस किस्म की जड़ें गोल, मध्यम आकार वाली, चिकनी और हलके पीले रंग की होती हैं. गूदा भी पीलापन लिए होता है. यह 65-70 दिनों में तैयार हो जाती है. सब्जी के लिए यह अच्छी किस्म है.

पूसा चंद्रिमा : यह किस्म 55-60 दिनों में तैयार हो जाती है. इस की जड़ें गोलाई लिए हुए होती हैं. यह ज्यादा उपज देती है.

पूसा कंचन : इस किस्म का छिलका ऊपर से लाल, गूदा पीले रंग का होता है. यह अगेती किस्म है, जो शीघ्र तैयार होती है. इस की जड़ें मीठी व खुशबूदार होती  हैं.

पूसा स्वेती : यह किस्म भी अगेती है. बोआई अगस्तसितंबर में की जाती है. जड़ें काफी समय तक खेत में छोड़ सकते हैं. जड़ें चमकदार व सफेद होती हैं.

स्नोवाल : यह भी अगेती किस्मों में शामिल है. इस की जड़ें मध्यम आकार की, चिकनी, सफेद और गोलाकार होती हैं. गूदा नरम व मीठा होता है.

टिकाऊ यानी जैविक खेती (Organic Farming)

आजादी से पहले जैविक खेती ही होती थी और तब देश कि खाद्यान्न में आत्मनिर्भर न होने के कारण विदेशों से अनाज मंगाया जाता था. देश की आजादी के बाद हरितक्रांति की शुरुआत हुई और तब  से लगातार रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के इस्तेमाल से फसल की अच्छी पैदावार इस बात का सुबूत है कि 60 के दशक से पहले जैविक खेती से खाद्यान्न उत्पादन उतना नहीं होता था जितना कि आज रासायनिक खेती से हो रहा है. यदि यह तथ्य सही है तो किसान जैविक खेती क्यों करेगा?

आज खेती निश्चित तौर से किसान के आर्थिक पहलू से जुड़ी है, अत: किसान वही खेती करेगा जिस में उसे अच्छा लाभ मिलेगा. यदि जैविक खेती में रासायनिक खेती के मुकाबले कम खाद्यान्न उत्पादन होता हो और किसान को घाटे की भरपाई नहीं हो पा रही हो तो किसान के लिए जैविक खेती का कोई मतलब ही नहीं रह जाता. लेकिन दूसरी तरफ जमीन की उर्वरता का संरक्षण किए बगैर इसी तरह अंधाधुंध रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का इस्तेमाल करते रहे तो एक दिन यह सब रेगिस्तान में बदल जाएगा.

अगर दोनों पक्ष अपनीअपनी जगह सही हैं तो किसान खेती का चुनाव कर ऊपर लिखे तथ्यों के आधार पर यह समझ लें कि जमीन के स्वास्थ्य की कीमत पर अधिक फसल का लालची प्रयास ज्यादा दिन नहीं टिक सकता है. रासायनिक उर्वरकों से नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश की ही पूर्ति होती है. शेष 13 तरह के सूक्ष्म तत्त्वों की आवक नहीं होगी तो भूमि की उर्वरता व संरचना कब तक बनी रहेगी और ऐसी जमीन से पैदा होने वाला खोखला अनाज हमारे स्वास्थ्य पर क्या असर डालेगा?

जैविक खेती (Organic Farming)

पौधों को पोषक तत्त्व उपलब्ध कराने के लिए कृषि विशेषज्ञों की सलाह के अनुसार उर्वरकों का उपयोग करने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन गोबर की खाद का प्रयोग न करने और रासायनिक उर्वरकों पर ही पूरी तरह निर्भर रहने से जमीन की उर्वराशक्ति कमजोर हो जाती है.

दूसरी तरफ कीटनाशकों के जहरीले रसायनों के बुरे नतीजों से सारा विश्व चिंतित है. वैज्ञानिकों के अनुसार कीटनाशकों के इस्तेमाल से मित्र कीट लगातार मर रहे हैं और हानिकारक कीटों की संख्या दिनोदिन बढ़ती जा रही है.

इन रसायनों के खराब नतीजों से साफ है कि रासायनिक खेती टिकाऊ विकल्प नहीं हो सकती. अत: 90 के दशक से ही दुनिया के अनेक देशों ने जैविक खेती की वकालत शुरू कर दी है.

जीवाणु खाद और उस से होने वाले लाभ के बारे में जानने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि गोबर या कंपोस्ट खाद का कोई चारा नहीं है. गोबर या कंपोस्ट खाद के उपयोग से मिट्टी की उर्वरता और संरचना कायम रखने के लिए समस्त पोषक तत्त्वों की आपूर्ति हो जाती है, जबकि रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से मिट्टी में किसी न किसी रूप में पोषक तत्त्वों की कमी रहती ही है. यदि मिट्टी में जरूरी पोषक तत्त्व नहीं होंगे तो हाईब्रिड फसलों को कम उपज के लिए दोषी नहीं ठहरा सकते हैं. गोबर या कंपोस्ट का उपयोग करते रहने से रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता को काफी कम किया जा सकता है. खेतों में यदि पोषक तत्त्व उचित मात्रा में होंगे तो पौधे एकदम स्वस्थ होंगे तथा स्वस्थ पौधों पर बीमारी का असर भी कम होगा, क्योंकि सामान्यत: कमजोर पौधे ही ज्यादा रोग से पीडि़त होते हैं.

जैविक या कार्बनिक खाद में सभी तरह के पोषक तत्त्व अधिक या कम मात्रा में होते हैं, लेकिन पौधों को ये पोषक तत्त्व धीरेधीरे प्राप्त होते हैं. सामान्यत: खाद में पोषक तत्त्वों की कमी और कार्बनिक पदार्थों की अधिकता होती है. मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों के बढ़ने से सूक्ष्म जीवियों की संख्या बढ़ जाती है और सूक्ष्मजीवी मिट्टी में मौजूद जहरीले पदार्थों को खत्म कर के उन्हें बेकार करते हैं और सड़ेगले कार्बनिक पदार्थों को ह्मूमस में बदल देते हैं.

खाद के इस्तेमाल से मिट्टी में हवा का आनाजाना और पानी सोखने की कूवत बढ़ जाती है. इस से मिट्टी में प्रत्यारोधन की कूवत का विकास होता है. खाद का ज्यादा इस्तेमाल करने पर भी मिट्टी या पेड़पौधों पर कोई हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता है.

जैविक खेती (Organic Farming)

गोबर की खाद

पशुओं के भोजन का पूरा या आधाअधूरा पचा हुआ भाग, जो पशुओं द्वारा मल के रूप में निकाल दिया जाता है, गोबर कहलाता है. गोबर की खाद में भैंस, गाय, बैल, भेड़, मुरगी, घोड़ा आदि पशुओं के मल को भी शामिल किया जाता है.

गोबर की खाद में मौजूद पोषक तत्त्व पौधों के लिए धीरेधीरे अलग होते हैं, इस कारण खेतों में गोबर की खाद का प्रभाव लंबे समय तक बना रहता  है. यह खाद मिट्टी में विनिमेय कैल्शियम बढ़ाती है, जो उस की भौतिक दशा सुधारने के लिए काफी खास मानी जाती है. खेतों में गोबर की खाद का इस्तेमाल करने पर पानी धीरेधीरे छूटता है, जिस में पौधे लंबे समय तक फायदे में रहते हैं. गोबर की खाद से मिट्टी में सूक्ष्म जीवियों की सक्रियता बढ़ जाती है, जिस से उस में ह्मूमस की मात्रा बढ़ती है और ह्मूमस रेतीली मिट्टी में पानी सोखने की कूवत में सुधार होता है और चिकनी मिट्टी को स्पंजी बनाता है.

फसल अवशेष : जलाए नहीं खाद बना कर बढ़ाएं जमीन की उर्वराशक्ति

हमेशा से देश में फसल के अवशेषों का सही निबटारा करने पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है. इन का अधिकतर भाग या तो दूसरे कामों में इस्तेमाल किया जाता है या फिर इन्हें नष्ट कर दिया जाता है, जैसे कि गेहूं, गन्ने, आलू व मूली वगैरह की पत्तियां पशुओं को खिलाने में इस्तेमाल की जाती हैं या फिर फेंक दी जाती हैं. कपास, सनई व अरहर आदि के तने, गन्ने की सूखी पत्तियां और धान का पुआल आदि जलाने में इस्तेमाल कर लिया जाता है.

पूर्वी उत्तर प्रदेश में अधिकतर गेहूं व धान की कटाई मशीनों द्वारा की जाती है. पिछले कुछ सालों से एक समस्या देखी जा रही है. जहां हार्वेस्टर द्वारा फसलों की कटाई की जाती है, उन क्षेत्रों में फसल के तनों के अधिकतर भाग खेत में खड़े रह जाते हैं. वहां के किसान खेत में फसल के अवशेषों को जला देते हैं. आमतौर पर रबी सीजन में गेहूं की कटाई के बाद फसल के अवशेषों को जला कर नष्ट कर दिया जाता है.

इस समस्या की गंभीरता को देखते हुए प्रशासन द्वारा बहुत से जिलों में गेहूं की नरई जलाने पर रोक लगा दी गई है. किसानों को शासन, कृषि विज्ञान केंद्र, कृषि विभाग व संबंधित संस्थाओं द्वारा यह समझाने की कोशिश की जा रही है कि किसान अपने खेतों के अवशेषों को जीवांश पदार्थ बढ़ाने में इस्तेमाल करें.

इसी तरह गांवों में पशुओं के गोबर का अधिकतर भाग खाद बनाने के लिए इस्तेमाल न कर के उसे ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है, जबकि इसी गोबर को यदि गोबर गैस प्लांट में इस्तेमाल किया जाए, तो इस से बहुमूल्य व पोषक तत्त्वों से भरपूर गोबर की स्लरी हासिल होगी, जिसे खेत की उर्वराशक्ति बढ़ाने में इस्तेमाल किया जाता है. साथ ही गोबर गैस को घर में ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है.

योजना को सफल बनाने के लिए सरकार द्वारा अनुदान भी दिया जाता है, मगर फिर भी नतीजे संतोषजनक नहीं हैं. जमीन में जीवांश पदार्थ की मात्रा लगातार कम होने से उत्पादकता या तो घट रही है या स्थिर हो गई है. लिहाजा समय रहते इस पर ध्यान दे कर जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ाने पर ही कृषि की उत्पादकता बढ़ा पाना मुमकिन हो सकता है. यह देश की बढ़ती हुई जनसंख्या को देखते हुए बहुत ही जरूरी है. ज्यादातर भारतीय किसान फसल अवशेषों का सही इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं.

फसल अवशेषों को जलाने से होने वाले नुकसान

* जब खेत में आग लगाई जाती है, तो खेत की मिट्टी उसी तरह जलती  है जैसे ईंट भट्ठे की ईंट जलती है. खेत का तापमान बढ़ने से उस में पाए जाने वाले लाभकारी जीव जैसे जैविक फर्टिलाइजर राइजोबियम, अजोटोबैक्टर, एजोस्पाइरिलम, ब्लू ग्रीन एलगी और पीएसबी जीवाणु जल कर नष्ट हो जाते हैं. इस के अलावा लाभदायक जैविक फफूंदनाशी ट्राइकोडर्मा, जैविक कीटनाशी विबैरिया बैसियाना, वैसिलस थिरूनजनेसिस और किसानों के मित्र कहे जाने वाले केंचुए आग की लपटों से जल कर नष्ट हो जाते हैं.

* फसल अवशेष जलने से पैदा होने वाले कार्बन से वायु प्रदूषित होती है, जिस का इनसानों व पशुपक्षियों पर बुरा असर पड़ता है.

* कार्बन डाईआक्साइड ज्यादा निकलने से ओजोन परत भी प्रभावित होती है और धरती का तापमान बढ़ जाता है.

ऊपर दी गई तालिका को देख कर हम अंदाजा लगा सकते हैं कि फसल अवशेषों से कितनी ज्यादा मात्रा में हम मिट्टी के जरूरी पोषक तत्त्वों की पूर्ति कर सकते हैं. विदेशों में जहां अधिकतर मशीनों से खेती की जाती है, वहां पर फसल के अवशेषों को बारीक टुकड़ों में काट कर मिट्टी में मिला दिया जाता है. वैसे मौजूदा दौर में भारत में भी इस काम के लिए रोटावेटर जैसी मशीन का इस्तेमाल शुरू हो चुका है, जिस से खेत को तैयार करते समय एक बार में ही फसल अवशेषों को बारीक टुकड़ों में काट कर मिट्टी में मिलाना काफी आसान हो गया है. जिन क्षेत्रों में नमी की कमी हो, वहां पर फसल अवशेषों की कंपोस्ट खाद तैयार कर के खेत में डालनी फायदेमंद होती है.

फसल अवशेषों का सही इस्तेमाल करने के लिए जरूरी है कि अवशेषों को खेत में जलाने की बजाय उन से कंपोस्ट तैयार कर के खेत में इस्तेमाल करें. उन क्षेत्रों में जहां चारे की कमी नहीं होती, वहां मक्के की कड़वी व धान के पुआल को खेत में ढेर बना कर खुला छोड़ने के बजाय गड्ढों में कंपोस्ट बना कर इस्तेमाल करना चाहिए.

आलू व मूंगफली जैसी फसलों की खुदाई करने के बाद बचे अवशेषों को खेत में जोत कर मिला देना चाहिए. मूंग व उड़द की फसल में फलियां तोड़ कर अवशेषों को खेत में मिला देना चाहिए.

फसल अवशेष (Crop Remains)

खेतों के अंदर इस्तेमाल

फसल की कटाई के बाद खेत में बचे घासफूंस, पत्तियां व ठूंठों आदि को सड़ाने के लिए 20-25 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़क कर कल्टीवेटर या रोटावेटर से काट कर मिट्टी में मिला देना चाहिए. इस प्रकार अवशेष खेत में विघटित होना शुरू कर देंगे और तकरीबन 1 महीने में सड़ कर आगे बोई जाने वाली फसल को पोषक तत्त्व देंगे.

अगर फसल अवशेष खेत में ही पड़े रहे तो नई फसल के पौधे शुरुआत में ही पीले पड़ जाते  हैं, क्योंकि अवशेषों को सड़ाने के लिए जीवाणु जमीन की नाइट्रोजन का इस्तेमाल कर लेते हैं. लिहाजा अवशेषों का सही निबटारा करना बेहद जरूरी है, तभी हम अपनी जमीन में जीवांश पदार्थ की मात्रा में इजाफा कर के जमीन को खेती लायक रख सकते हैं और ज्यादा उपज हासिल कर सकते हैं.

आलू (Potato) की खेती

आलू (Potato) दैनिक आहार का एक अभिन्न हिस्सा है. वर्षभर आलू (Potato) की उपलब्धता रहती है. आलू (Potato) से सब्जी, पकौड़े, समोसे, चिप्स बनाने के अलावा इस का व्रत में फलाहार के रूप में भी प्रयोग किया जाता है. प्रति व्यक्ति आलू (Potato) की उपलब्धता 16 किलो प्रति वर्ष है, जो निश्चित रूप से कम है. आलू (Potato) की उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए इस की तकनीकी को समझना होगा.

प्रसार्ड ट्रस्ट मल्हनी, देवरिया के निदेशक का कहना है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में धान काटने के बाद किसान दिसंबर तक आलू लगाते है, जिस से कीट बीमारियों का प्रकोप बढ़ जाता है, उपज पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है. यदि आलू 25 अक्तूबर तक लगा दिया जाए तो कीट और बीमारियों का प्रकोप कम होता है तथा उत्पादन भी अच्छा होता है.

आलू की प्रमुख किस्मों में कुफरी अशोका, कुफरी चंद्रमुखी, कुफरी सूर्या 70-80 दिनों में तैयार हो जाती हैं. इन की उत्पादन क्षमता 250 से 300 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है. कुफरी बहार, कुफरी पुखराज, कुफरी लालिमा, कुफरी अरुण, कुफरी गिरीराज, कुफरी कंचन, कुफरी पुष्कर, कुफरी ज्योति 90-100 दिनों में तैयार हो जाती हैं. उत्पादन क्षमता 250-300 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है.

कुफरी सतलुज,कुफरी आनंद, कुफरी सिंदूरी, कुफरी चिप्सोना-1, 2, 3 आदि 110-120 दिनों की किस्में हैं, जिस का उत्पादन प्रति हैक्टेयर 350 से 400 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

आलू की खेती के लिए बलुई दोमट एवं दोमट मृदा सर्वोच्च होती है. प्रति हैक्टेयर में 30 से 35 क्विंटल कंद (35-40 या 40-50 ग्राम के कंद अथवा 3.5 से 4।सैंटीमीटर वाले कंद) प्रर्याप्त होते हैं. पंक्ति से पंक्ति की दूरी 60 सैंटीमीटर तथा कंद से कंद की दूरी बीज आलू के आकार के अनुसार 20-30 सैंटीमीटर पर रखी जाती है.

आलू बोआई से पहले 250 क्विंटल गोबर की सड़ी खाद प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिला दें. उर्वरक का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना चाहिए. 150:80:100 नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पोटाश का प्रयोग प्रति हेक्टेयर की दर से कर सकते हैं. इस की पूर्ति के लिए 260 किलो यूरिया, 176 किलो डाईअमोनियम फास्फेट और 170 किलो म्यूरेट औफ पोटाश का प्रयोग करें. बोआई के समय नाइट्रोजन की आधी मात्रा, फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा का प्रयोग करें. नाइट्रोजन की शेष मात्रा का मिट्टी चढ़ाते समय 20-25 दिन बाद प्रयोग करना चाहिए. आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना चाहिए. कीट और बीमारियों की निगरानी रखनी चाहिए. अगर आलू भंडारण करना है तो परिपक्व होने पर ही खुदाई करें.

फसल विविधिकरण (Crop Diversification) है लाभकारी

बीजोलिया, भीलवाड़ा में महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के अनुसंधान निदेशालय के अंतर्गत फसल विविधीकरण परियोजना के तहत दो दिवसीय विस्तार अधिकारियों के प्रशिक्षण कार्यक्रम का शुभारंभ किया गया. यह कार्यक्रम ‘दक्षिणी राजस्थान में फसल विविधिकरण के माध्यम से कृषि स्थिरता और लाभप्रदता बढ़ाना’ शीर्षक के तहत पायलट प्रोजैक्ट के रूप में आयोजित किया जा रहा है.

इस कार्यक्रम का उद्देश्य अधिकारियों को फसल विविधिकरण के नवीनतम तरीकों और तकनीकों से अवगत कराना है, ताकि वे किसानों को बेहतर कृषि स्थिरता और आर्थिक लाभ प्राप्त करने में सहायता कर सकें. कार्यक्रम में उपस्थित विशेषज्ञों ने फसल विविधिकरण के विभिन्न पहलुओं पर व्याख्यान दिए और बताया कि किस प्रकार यह रणनीति दक्षिणी राजस्थान के किसानों को बेहतर लाभप्रदता और दीर्घकालिक कृषि स्थिरता प्राप्त करने में मदद कर सकती है.

परियोजना प्रभारी डा. हरि सिंह ने फसल विविधिकरण को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निबटने और मिट्टी की सेहत सुधारने के लिए आवश्यक बताया. उन्होंने सफल मामलों के अध्ययन प्रस्तुत किए और जमीनी स्तर पर इन रणनीतियों को लागू करने के व्यावहारिक सुझाव दिए.

उदय लाल कोली, कृषि अधिकारी ने फसल विविधिकरण के आर्थिक लाभों पर जोर दिया. उन्होंने बताया कि किस प्रकार किसान संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग कर सकते हैं और एकल फसल प्रणाली से जुड़े जोखिमों को कम कर सकते हैं. उन्होंने विस्तार अधिकारियों को किसानों को एक अधिक विविधीकृत फसल प्रणाली अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया, जिस से उन की आय और बाजार के उतारचढ़ाव के खिलाफ स्थिरता बढ़ सके.

कृषि अधिकारी सोनिया सिलवाटिया ने बताया कि कृषि वैज्ञानिकों, विस्तार अधिकारियों और किसानों के बीच सहयोग किस प्रकार फसल विविधिकरण के लक्ष्य को सफलतापूर्वक प्राप्त करने में मदद कर सकता है.

लक्ष्मी लाल ब्रह्मभट्ट ने फसल विविधिकरण के कार्यान्वयन के लिए एक विस्तृत योजना प्रस्तुत की. उन्होंने किसानों की मदद के लिए उपलब्ध सरकारी योजनाओं पर जानकारी प्रदान दी.

फसल विविधिकरण (Crop Diversification)

यह कार्यक्रम अत्यंत जानकारीपूर्ण रहा और प्रतिभागियों ने अपनेअपने क्षेत्रों में इस ज्ञान को लागू करने की उत्सुकता व्यक्त की, ताकि फसल विविधिकरण के माध्यम से कृषि स्थिरता और लाभप्रदता में सकारात्मक बदलाव लाया जा सके.

समय से करें खेतीबारी से जुड़े ये काम

मई का महीना खेती के नजरिए से खास होता है. इस महीने जहां गेहूं की मड़ाई और भंडारण पर खास ध्यान देने की जरूरत होती है, वहीं सब्जियों की फसल की समय से सिंचाई, निराईगुड़ाई और तैयार फसल की तुड़ाई से ले कर समय से बाजार पहुंचाने को ले कर किसानों को खास सावधानी बरतने की जरूरत होती है.

वैसे भी मई का महीना खरीफ फसल की बोआई और रोपाई से जुड़ी तैयारियों के नजरिए से भी अहम माना जाता है. मिट्टी की उत्पादन कूवत की जांच के लिए मिट्टी का नमूना भी किसान इसी महीने स्थानीय लैब पर ले जा  सकते हैं. साथ ही, खेतीकिसानी से जुड़े इन कामों को भी किसान समय से पूरा करें:

जो किसान गेहूं की मड़ाई किसी वजह से समय से पूरा नहीं कर पाए हैं, वे हर हाल में मई महीने के पहले हफ्ते तक मड़ाई का काम पूरा कर लें. साथ ही, जिन किसानों ने मड़ाई का काम पूरा कर लिया है और वे गेहूं को बोरियों में भंडारित करना चाहते हैं, तो वे पहले जमीन से कम से कम एक फुट ऊपर लकड़ी का प्लेटफार्म बना लें. उस के बाद बोरे के नीचे गेहूं और नीम की पत्तियां बिछा कर दीवार से 50 सैंटीमीटर की दूरी पर भंडारित करें.

गेहूं के भंडारण के लिए जूट की नई बोरियों को चुनें. इस के अलावा गेहूं के 100 किलोग्राम बीज में एक किलोग्राम नीम का बीज मिला कर रखें. इस से गेहूं में कीटों का प्रकोप नहीं हो पाता है.

जो किसान भंडारगृह में गेहूं का भंडारण करना चाहते हैं, वे भंडारगृह को कीटनाशक से विसंक्रमित कर लें.

अगर किसान रासायनिक कीटनाशी का इस्तेमाल नहीं करना चाहते हैं, तो वे प्रति क्विंटल में एक किलोग्राम नीम की पतियों को छाया में सुखा कर और अच्छे से साफ कर के गेहूं भंडारण के समय मिला दें.

जो खेत रबी की फसल से खाली हो चुके हैं, उन की उर्वरा कूवत की जांच जरूर कराएं. इस से फसल में संस्तुत मात्रा में खाद और उर्वरक का इस्तेमाल करने में किसानों को आसानी होगी.

खेत से मिट्टी की जांच के लिए नमूना लेने के लिए एक एकड़ खेत में अलगअलग 8-10 जगहों पर निशान लगा लेते हैं. इस के बाद अंगरेजी के “V” आकार में 6 इंच गहरेगहरे गड्ढे बना कर निकाली गई मिट्टी को 4 भागों में बांट लेते हैं. इस के बाद आमनेसामने के 2 भागों की मिट्टी को मिला कर बाकी बची मिट्टी फेंक देनी चाहिए.

इस तरह से नमूने के लिए ली जाने वाली मिट्टी के तकरीबन 500 ग्राम होने तक इस प्रक्रिया को दोहराते रहते हैं. इस के बाद मिट्टी के नमूने को थैली में भर कर अपना नाम, पूरा पता, खेत की पहचान, नमूना लेने की तारीख, जमीन की ढलान, सिंचाई का स्रोत, जल निकासी, अगली बोआई करने की फसल, पिछले साल की फसलों की जानकारी आदि विवरण के साथ जांच के लिए स्थानीय मृदा जांच प्रयोगशाला में जमा कर दिया जाता है.

किसान यह जरूर ध्यान दें कि जिस खेत से वे नमूना ले रहे हैं, उस की मिट्टी गीली न हो और जिस खेत में हाल ही में कंपोस्ट, खाद, चूना, जिप्सम आदि का इस्तेमाल किया गया है, उस खेत की मिट्टी का नमूना न लें. इस के अलावा खेत की मेंड़ों और रास्तों की मिट्टी का नमूना नहीं लेना चाहिए. साथ ही, यह भी ध्यान दें कि खेत के किनारों से कम से कम 1-1.5 मीटर अंदर की तरफ से नमूना लें.

मई महीने में ही किसान खेतों के समतलीकरण का काम पूरा कर लें, जिस से खरीफ की फसल में सिंचाई के समय पानी पूरे खेत में आसानी से पहुंच जाता है.

खाली खेत की गहरी जुताई आरएमबी प्लाऊ से करें. इस से खेत से खरपतवार नष्ट होने के साथ ही फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़े मर जाते हैं और खेत के पानी को सोखने की कूवत बढ़ जाती है.

जिन किसानों ने हरी खाद के लिए सनई या ढैंचा की बोआई नहीं की है, वे मई महीने के पहले हफ्ते में बोआई का काम हर हाल में पूरा कर लें.

सनई या ढैंचा की बोआई के लिए प्रति हेक्टेयर 50-60 किलोग्राम बीज की जरूरत पड़ती है. हरी खाद के लिए सनई या ढैंचा की फसल 40-45 दिन में प लटाई के काबिल हो जाती है.

किसान खरीफ में ली जाने वाली सब से मुख्य फसल धान के लिए खेती की तैयारी शुरू कर दें. जो किसान धान की सब से देर से पकने वाली किस्में लेना चाहते हैं, वे मई महीने के आखिरी हफ्ते में नर्सरी जरूर डाल दें.

धान की नर्सरी में मीडियम आकार वाली किस्मों की प्रति हेक्टेयर 35 किलोग्राम, मोटे धान की 40 किलोग्राम व महीन धान की 30 किलोग्राम मात्रा डालें.

धान के उसी बीज का चयन करें, जो आधारित और प्रमाणित हो, क्योंकि ऐसे बीज के जमाव और शुद्धता की प्रमाणिकता होती है. धान बीज को नर्सरी में डालने के पहले उस का उपचार जरूरी है.

बीजोपचार के लिए प्रति किलोग्राम बीज के लिए 4 ग्राम ट्राईकोडर्मा या 2.5 ग्राम कार्बंडाजिम या थीरम की जरूरत पड़ती है.

धान की नर्सरी डालने के लिए 8 मीटर लंबी और 1.5 मीटर चौड़ी क्यारियां बनाना सही होता है.

धान बीज को नर्सरी में डालने के पहले उसे 24 घंटों के लिए पानी में भिगोने के बाद उसे पानी से निकाल लें और 24 से 48 घंटे तक छायादार जगह पर ढेर बना कर रख दें. इस से बीज अंकुरित हो जाता है. जब बीज पूरी तरह से अंकुरित हो जाए, तो नर्सरी में बीज डालने से जमाव दर सही होता है.

जिन किसानों ने जायद की फसल के रूप में मूंग, उड़द और लोबिया की फसल ले रखी है, वे फसल की सिंचाई हर 15 दिन पर करते रहें.

सूरजमुखी की खेती करने वाले किसान समय से फसल की सिंचाई करते रहें और पौधों पर मिट्टी चढ़ा दें.

फसल में झर्रीदार पत्ती रोग, पीला चितेरी या पीत रोग, चूर्णी कवक पर्ण बूंदगी रोग, रुक्ष रोग, उड़द का पीला चित्तवर्ण रोग, उड़द का पत्र दाग रोग और कीटों का प्रकोप फसल में दिखाई पड़ने पर अपने स्थानीय कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिक फसल सुरक्षा से बात कर के सही उपाय अपनाएं.

जो किसान मूंगफली की खेती करना चाहते हैं, वे जायद फसल मूंगफली की बोआई मई महीने के पहले हफ्ते तक पूरा कर सकते हैं. जायद सीजन में बोई जाने वाली मूंगफली की उन्नत किस्मों में एचबी 84, एम 522, एम 335 व एम 37 का इस्तेमाल किया जा सकता है.

मूंगफली की फसल में बोआई के समय 250 किलोग्राम जिप्सम प्रति हेक्टेयर की दर से करें. साथ ही, सिंचाई वाले एरिया में नाइट्रोजन 25 से 30 किलोग्राम, फास्फोरस 50 से 60 किलोग्राम और 40 किलोग्राम पोटाश का इस्तेमाल प्रति हेक्टेयर के हिसाब से करें.

फसल से खरपतवार निकालते रहें व किसी भी तरह की बीमारी या कीट का प्रकोप दिखने पर तुरंत ही स्थानीय कृषि विज्ञान केंद्र से संपर्क करें.

जिन किसानों ने सूरजमुखी की फसल ले रखी है, वे 15-20 दिन के अंतराल पर निराईगुड़ाई कर फसल की सिंचाई करते रहें

गन्ने की खेती करने वाले किसान, जिन्होंने वसंतकालीन गन्ने की फसल ले रखी है, वे 20 दिनों के अंतर पर फसल की सिंचाई करते रहें. साथ ही, फसल में प्रति हेक्टेयर की दर से 130 से 165 किलोग्राम यूरिया की बोआई कर फसल की सिंचाई कर दें.

इस के अलावा गेहूं की फसल से खाली हुए खेत में गन्ने की बोआई करने के लिए कतार से कतार की दूरी 60-65 सैंटीमीटर रख कर मई के पहले हफ्ते में बो दें. नुकसान से बचने के लिए गन्ने की रोगरोधी किस्मों का ही चयन करें.

चूंकि मई महीने में तेज लू चलती है, ऐसे में गन्ने की फसल की बढ़वार के लिए समय से सिंचाई बहुत माने रखती है, इसलिए गन्ने की फसल की सिंचाई 15-20 दिन के अंतर पर करते रहें. गन्ने की पेड़ी में प्रति हेक्टेयर के हिसाब से सिंचाई के बाद 163 किलोग्राम यूरिया की मात्रा दें.

फसल को गिरने से बचाने के लिए पौधों के अगलबगल मिट्टी चढ़ाना न भूलें. फसल में किसी भी तरह के रोग व कीट का असर दिखने पर अपने नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र से संपर्क करें.

जहां सिंचाई का अच्छा इंतजाम है, वहां किसान मई महीने में कपास की बोआई कर सकते हैं. इस की उन्नत किस्मों में फतेह, एलडीएच 11, एलएच 144, धनलक्ष्मी, पूसा 8-6, एचडी-1 जैसी किस्मों का चयन करें.

सिंचाई वाले क्षेत्र में बलुई व बलुई दोमट मिट्टी में कपास की खेती की जा सकती है. बीज की बोआई सीडड्रिल से करें. बोआई के पहले बीज शोधन करना न भूलें.

जिन किसानों ने गरमियों की फसल के रूप में टमाटर, बैगन व हरी मिर्च जैसी सब्जियों की खेती कर रखी है, वे भी समय पर सिंचाई करते रहें.

बैगन व टमाटर की फसल में प्रति हेक्टेयर 50 किलोग्राम नाइट्रोजन व हरी मिर्च में 35 किलोग्राम नाइट्रोजन का इस्तेमाल करें. फसल में कीट नियंत्रण के लिए फैरोमौन ट्रैप लगाएं.

जिन किसानों ने बीज के लिए फूलगोभी, गांठगोभी, पत्तागोभी, शलजम, गाजर, मूली व पालक छोड़ रखी थी, वे मई महीने के दूसरे सप्ताह तक फसल की कटाई कर लें और बीज को कड़ी धूप में सुखा कर भंडारित करें.

प्याज और लहसुन की तैयार फसल की सिंचाई बंद कर मई के पहले हफ्ते से खुदाई शुरू कर छाया व हवादार जगह पर भंडारित करें.

जो किसान हलदी और अदरक की खेती करना चाहते हैं, वे हलदी का 15-20 क्विंटल व अदरक के 16-18 क्विंटल बीज का इस्तेमाल प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई के लिए कर सकते हैं. हलदी की उन्नत किस्मों में कस्तूरी, सोनिया, सुगना,अमलापुरम, कृष्णा, राजेंद्र, मधुकर सही होती हैं, जबकि अदरक की उन्नत किस्मों में सुप्रभा, सुरभि, सुरुचि व हिमगिरी सही होती हैं.

सूरन की खेती करने वाले किसान मई महीने में बोआई का काम जरूर पूरा कर लें. इस की उन्नत किस्मों में गजेंद्र, संतरागाछी, श्रीपद्मा (एम-15) का चयन कर सकते हैं.

गरमियों में बोई जाने वाली मूली की उन्नत किस्मों में पूसा चेतकी सही मानी जाती है और यह महज 45 दिनों में तैयार हो जाती है. इस किस्म की बोआई अप्रैल से अगस्त महीने तक की जा सकती है.

मई महीने में गरमी ज्यादा होती है, इसलिए लौकी, तोरई, कद्दू, खरबूजा, तरबूज, ककड़ी, खीरा जैसी फसलों की सिंचाई समय पर करते रहें.

फसल में कीड़े व रोग का प्रकोप दिखने पर नजदीक के कृषि विज्ञान केंद्र पर संपर्क करें.

मई महीने में आम, अमरूद, पपीता, आलूबुखारा, नाशपाती, बेर, लीची, अंगूर, आंवला, नीबू जैसे फलदार पौधों की सिंचाई करते रहें. इस महीने लीची के फल पक कर तैयार हो जाते हैं. जब लीची के फल गहरे गुलाबी या लाल रंग के हो जाएं, तो फलों की तुड़ाई शुरू कर दें. फलों को फटने से बचाने के लिए सिंचाई का उचित इंतजाम करें.

मई महीने में अमरूद की फसल की छंटाई करें. इस से नई शाखाएं निकलती हैं, जिस से सर्दियों में पौध से ज्यादा फल मिलते हैं.

जिन लोगों ने केले की रोपाई कर रखी है, वे रोपित पौध में 25 ग्राम नाइट्रोजन आधा मीटर दूर की गोलाई में डाल कर सिंचाई करें.

अगर कागजी नीबू में फलों के फटने की समस्या आ रही है, तो पौधों पर 4 फीसदी पोटेशियम सल्फेट के घोल को पानी में मिला कर छिड़काव करें.

मई महीने में रजनीगंधा की रोपाई पहाड़ी क्षेत्रों में की जा सकती है. आमतौर पर रजनीगंधा की रोपाई मार्च महीने से जून माह के बीच की जा सकती है. जिन किसानों ने रोपाई कर रखी है, वे हर 15 दिन पर फसल की सिंचाई करते हुए फसल से खरपतवार निकालते रहें.

मई महीने में गुलदाउदी की कटिंग को जड़ बनने के लिए मिट्टी में डालें. गुलाब, ग्लेडियोलस की सिंचाई का खास खयाल रखें.

जो किसान औषधीय फसलों की खेती करना चाहते हैं, वे मई महीने में तुलसी, सफेद मूसली की बोआई कर सकते हैं. साथ ही, पहले हफ्ते में सर्पगंधा की नर्सरी डालें. एक हेक्टेयर खेत में रोपाई के लिए नर्सरी डालने में 6-7 किलोग्राम बीज की जरूरत पड़ती है. जिन किसानों ने मैंथा की फसल लगा रखी है, वे फसल में नाइट्रोजन की अंतिम टौप ड्रेसिंग कर लें.

चारे वाले फसल के रूप में जिन किसानों ने ज्वार, बाजरा व मक्के की बोआई कर रखी है, वे समय पर सिंचाई करते रहें और जिन्होंने अभी तक बोआई नहीं की है, वे मई महीने के पहले हफ्ते तक जरूर बोआई कर दें.

चारे वाली किस्मों की खेत में बोआई के पहले प्रति हेक्टेयर 10 टन देशी खाद का इस्तेमाल करें. जिन किसानों ने बरसीम, जई व लोबिया की फसल बीज के लिए छोड़ रखी थी, वे कटाई कर बीज के दानों को कड़ी धूप में सुखा कर ही रखें.

 

पशुओं को मई महीने में चलने वाली तेज लू से बचाने का सही इंतजाम करें और उन्हें सही मात्रा में हरा चारा देते रहें.

इस महीने पशुओं को पानी की ज्यादा जरूरत होती है. ऐसे में पशुओं के लिए सही मात्रा में पीने के लिए साफ पानी का इंतजाम रखें.

मुरगीपालन के व्यवसाय से जुड़े लोग मुरगीखाने को ठंडा रखने के लिए एस्बेस्टस या टिन की छतों पर पैंट लगाएं और परदों पर पानी के छींटें मारें.

मुरगियों के लिए पीने के लिए साफ पानी का सही से इंतजाम करें और उन के चारे में प्रोटीन की मात्रा 18 फीसदी से बढ़ा कर 20 फीसदी करें.

समर्थन मूल्य पर सरसों, चना बेचने हेतु रजिस्ट्रेशन शुरू

जयपुर: भारत सरकार द्वारा राज्य में सरसों खरीद के लिए 14.58 लाख मीट्रिक टन एवं चना खरीद के लिए 4.52 लाख मीट्रिक टन खरीद लक्ष्य स्वीकृत किए गए हैं. राज्य में पिछले सालों की भांति सरसों, चना की खरीद औनलाइन प्रक्रियानुसार की जानी है. इस के लिए कोटा संभाग में सरसों, चना के किसानों के पंजीयन 12 मार्च से और बाकी राज्य में 22 मार्च से आरंभ किए जा रहे हैं.

कोटा संभाग में सरसों, चना की खरीद का काम 15 मार्च से और शेष राज्य में 1 अप्रैल से आरंभ किया जाएगा. रबी सीजन 2024-25 में किसानों को उन के नजदीकी क्षेत्र में सरसों, चना की तुलाई सुविधा उपलब्ध कराने के उद्देश्य से सरसों एवं चने के 520-520 कुल 1040 क्रय केंद्र स्वीकृत किए गए हैं.
प्रबंध निदेशक, राजफैड एवं शासन सचिव, सहकारिता स्तर से रबी 2024-25 में सरसों एवं चने की खरीद संबंधी तैयारियों की वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग यानी वीसी के जरीए समीक्षा की गई.

इस दौरान बतलाया गया कि कृषक ई मित्र केंद्र के माध्यम से पंजीयन करवा सकेंगे. पंजीयन का समय प्रातः 9 बजे से सायं 7 बजे तक का रहेगा. पंजीयन प्रक्रिया के संबंध में विशेष दिशानिर्देश जारी कर दिए गए हैं. किसान को जनाधार कार्ड, गिरदावरी एवं बैंक पासबुक की प्रति पंजीयन फार्म के साथ अपलोड करनी होगी. किसान को आधार आधारित बायोमैट्रिक अभिप्रमाणन से पंजीयन करवाना होगा. सभी किसान अपना मोबाइल नंबर आधार से लिंक करवा ले, ताकि किसानों को समय रहते तुलाई दिनांक की सूचना प्राप्त हो सके.

किसान जनाधार कार्ड में अपने बैंक खाते के नंबर को अपडेट कराना सुनिशिचित करें, ताकि खाता संख्या और आईएफएससी कोड में यदि कोई विसंगति यानी गड़बड़ी है, तो किसान द्वारा समय पर उस का सुधार करवाया जा सके.

विभागीय अधिकारियों द्वारा यह भी बतलाया गया कि एक जनाधार कार्ड पर एक ही पंजीयन मान्य होगा. किसान एक मोबाइल नंबर पर एक ही पंजीयन दर्ज करा सकेगा. उन के द्वारा यह भी निर्देश दिए गए कि ईमित्र पंजीयन से संबंधित नियमों की पूरी तरह से पालना सुनिश्चित करें. जिस क्षेत्र में किसान की कृषि भूमि है, उसी तहसील के कार्यक्षेत्र में आने वाले क्रय केंद्र का चयन कर पंजीयन करवा सकेंगे.

यदि किसान या ईमित्र द्वारा गलत तहसील भर कर पंजीयन कराया जाता है, तो ऐसे किसानों से जिंस क्रय करना संभव नहीं होगा. यदि ईमित्र द्वारा गलत पंजीयन किए जाते हैं अथवा तहसील से बाहर पंजीयन किए जाते हैं, तो ऐसे ईमित्र के खिलाफ कठोर कार्यवाही की जाएगी.

विभागीय अधिकारियों द्वारा यह भी अवगत कराया गया कि सरसों का समर्थन मूल्य भारत सरकार द्वारा 5,650 रुपए एवं चने का 5,440  रुपए प्रति क्विंटल घोषित किया गया है. सरसों में नमी की अधिकतम मात्रा 8 फीसदी एवं चने में नमी की अधिकतम मात्रा 14 फीसदी निर्धारित है.

किसान क्रय केंद्र पर अपने जिंस को साफसुथरा, छान कर लाएं, ताकि एफएक्यू श्रेणी के गुणवत्ता मापदंडों के अनुरूप सरसों, चना की खरीद की जा सके. किसानों की समस्या के समाधान के लिए राजफैड द्वारा हैल्पलाइन नंबर 18001806001 स्थापित किया हुआ है.

आधुनिक खेती (Modern Farming) की ओर युवा किसान ज्ञान चंद

बलिया जिला मुख्यालय से 64 किलोमीटर व सीयर ब्लौक से 4 किलोमीटर उत्तरपश्चिम दिशा में स्थित पड़री गांव है. इस गांव के युवा किसान ज्ञान चंद शर्मा हैं. इन्होंने स्नातक की तालीम हासिल की है. इस युवा किसान के प्रक्षेत्र का भ्रमण कर उन से चर्चा की.

ज्ञान चंद शर्मा ने बताया कि उन की पुश्तैनी जमीन महज 2 एकड़ है और वे 13 एकड़ जमीन 15,000 रुपए प्रति एकड़ की दर से किराए पर ले कर खेती करते हैं. इसे आम भाषा में ‘पोत’ कहते हैं.

किसान ज्ञान चंद शर्मा के पास आधुनिक कृषि यंत्र जैसे- रोटावेटर, डिस्क हैरो, लेजर लैवलर, गाजर बोने व खोदने का यंत्र, गाजर की सफाई व पानी से धुलाई करने का यंत्र, स्प्रिंकलर सैट, टपक सिंचाई यंत्र आदि की सुविधा है.

खरीफ में बासमती धान, बैगन, टमाटर व खीरा की खेती उन्होंने की थी. वर्तमान में रबी सीजन में सरसों, गेहूं, बैगन आधा एकड़ में, शिमला मिर्च आधा एकड़ में, फैं्रचबीन व टमाटर की भी आधे एकड़ में उन की फसल लहलहा रही है.

Young Farmer

10 एकड़ क्षेत्रफल में लाल गाजर की फसल लगी थी, जिस की खुदाई कर उन्हें बेचा जा चुका है. अभी आधा एकड़ क्षेत्रफल में पीला गाजर तैयार होने की स्थिति में है.

गाजर व अन्य फसलों से खाली हुए खेतों में जायद सीजन के लिए खीरा आधा एकड़ में और तरबूज 10 एकड़ में लगा चुके हैं. जैविक विधि से भी वे कीटों का प्रबंधन करते हैं.

किसान ज्ञान चंद शर्मा ने बताया कि कम से कम 50 एकड़ में इस तरह की खेती करने का लक्ष्य है और अपने बेटे को खेती में स्नातक करा कर नौकरी न करा कर खेती के काम में ही लगाना चाहते हैं.

ऐसी सोच रखने वालों में ये पहले किसान मिले, जो अपने बेटे को खेतीकिसानी में ही पारंगत कराना चाहते हैं. इन के प्रक्षेत्र को देखने के लिए प्रतिदिन बाहर से भी किसान आते रहते हैं. अन्य युवाओं को ऐसे किसानों से प्रेरणा लेनी चाहिए.

अधिक जानकारी के लिए किसान ज्ञान चंद शर्मा के मोबाइल नंबर 9721012998 पर संपर्क कर सकते हैं.

चना फसल की करें सुरक्षा

सीहोर: विगत एक सप्ताह से मौसम में परिवर्तन होने के कारण रबी मौसम की प्रमुख फसलें गेहूं व चना फसल में रोग व कीटों के प्रकोप की पूरी संभावना बनी हुई है. विकसित भारत संकल्प यात्रा के दौरान जिले के विभिन्न गांवों में कृषि विकास विभाग के मैदानी अमले एवं कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों द्वारा किसानों के खेतों का भ्रमण कर के फसलों में आने वाली समस्याओं से रूबरू कराते हुए उन के बेहतर उपायों से किसानों को अवगत कराया जा रहा है.

उपसंचालक, कृषि एवं कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिक द्वारा बताया गया कि चना फसल वर्तमान समय में पुष्पन, फलन वाली अवस्था पर है. इस अवस्था में मौसम में परिवर्तन जैसे दिन में न्यूनतम तापमान, हलकी बारिश होने के कारण पौधों में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया सुचारु रूप से न होने के चलते चना फसल में पुष्पन प्रभावित होने के साथसाथ फसल के पुष्प भी पीले पड़ कर सूख रहे हैं, जिस के चलते फसल में माली नुकसान होने की पूरी संभावना है और साथ ही फसल में चने की सूंडी व इल्ली के साथसाथ उकटा व जड़सड़न रोग के प्रकोप के कारण भी फसल सूख रही है.

किसानों को सलाह है कि चना फसल की सुरक्षा के लिए इमामेक्टिन बेंजोएट, प्रोफेनोफास 200 ग्राम प्रति एकड़ या क्लोरोइन्ट्रानिलीप्रोल, लेंब्डासाइलोथ्रिन 80 मिलीलिटर प्रति एकड़ के साथ फ्लूपायरौक्साइड, पायरोक्लोरोस्ट्रोबिन 150 मिलीलिटर प्रति एकड़ या एजोक्सीस्ट्रोबिन, टेबूकोनोजोल 150 मिलीलिटर प्रति एकड़ के साथ एनपीके 19ः19ः19, एक किलोग्राम प्रति एकड़ से 150 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें.

उपसंचालक कृषि ने बताया कि जिले की मुख्य फसल गेहूं में भी वर्तमान समय में जड़ माहू कीट व कठुआ इल्ली का प्रकोप शुरुआती अवस्था से ही फसल पर बना हुआ है, जिस के चलते फसल पीली पड़ कर सूख रही है व इल्ली के प्रकोप के कारण फसल की वानस्पतिक वृद्धि व बालियां प्रभावित हो रही हैं.

इसलिए किसानो को सलाह है कि उक्त कीटों के निदान के लिए इमामेक्टिन बेंजोएट, प्रोफेनोफास 200 ग्राम प्रति एकड़ के साथ एनपीके 19ः19ः19, एक किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से 150 लिटर पानी में घेाल बना कर छिड़काव करें.

साथ ही, अपनी फसलों की सुरक्षा के लिए सतत् कृषि विभाग के अधिकारियों एवं कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों के संपर्क में रहें.

गन्ना सुधार के लिए जैव प्रौद्योगिकी की बढ़ती भूमिका

गन्ना एक बारहमासी फसल है, जो 12 से 18 महीने की अवधि के बीच पक कर तैयार होती है. आमतौर पर भारत में 12 महीने के लिए गन्ना लगाया जाता है. इस को खेत में जनवरीफरवरी माह में रोपा जाता है. 16 से 18 महीने के लिए दक्षिण भारत के राज्यों में जैसे आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु के कुछ हिस्सों में जुलाई से अगस्त माह में लगाया जाता है. इस के अलावा अक्तूबर से नवंबर माह में गन्ने को लगाया जा सकता है, जिस को पूर्व मौसमी 15 महीने की फसल के नाम से भी जाना जाता है.

भारत में 300 मिलियन तक गन्ने का उत्पादन होता है. तकरीबन 35 फीसदी मात्रा गुड़ व खांडसारी के कुल उत्पादन के लिए इस्तेमाल में लाई जाती है. गन्ना उत्पादन कर्नाटक, तमिलनाडु की तुलना में उत्तर प्रदेश में प्रमुख रूप से किया जाता है.

देश में तकरीबन 4 करोड़ किसान अपनी जीविका के लिए गन्ने की खेती पर निर्भर हैं और इतने ही खेतिहर मजदूर भी, जो गन्ने के खेतों में काम कर के अपनी आजीविका चलाते हैं.

गन्ने के महत्त्व को इसी बात से समझा जा सकता है कि देश में निर्मित सभी प्रमुख मीठे उत्पादों के लिए गन्ना एक प्रमुख कच्चा माल है. यही नहीं, इस का उपयोग खांडसारी उद्योग में भी किया जाता है.

उत्तर प्रदेश गन्ने की कुल गन्ना उपज का 35.81 फीसदी, महाराष्ट्र 25.4 फीसदी और तमिलनाडु 10.93 फीसदी पैदा करते हैं यानी ये तीनों राज्य देश के कुल गन्ने का 72 फीसदी उत्पादन करते हैं. इधर पिछले 2 दशकों से दक्षिण के राज्यों में गन्ने की उपज में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है. इन राज्यों में प्रति हेक्टेयर गन्ने की उपज भी उत्तर भारत की तुलना में अधिक है. यही वजह है कि ज्यादातर नई चीनी मिलें इन राज्यों में लगाई गई हैं.

गन्ना एक फसल से अधिक

जब लोग गन्ने के बारे में सोचते हैं, तो तुरंत इसे टेबल शुगर के साथ जोड़ देते हैं. सब से लोकप्रिय स्वीटनर को कैमिकल रूप से सुक्रोज के रूप में भी जाना जाता है.

वास्तव में जीनस सैकरम की यह घास दुनियाभर में उत्पादित सुक्रोज का 80 फीसदी है, बाकी 20 फीसदी गन्ने से आती है.

सुक्रोज रस हासिल करने के लिए हर साल तकरीबन 2 बिलियन मीट्रिक टन गन्ना डंठल चीनी मिलों में पेराई के लिए दिया जाता है. लेकिन इस फसल के भीतर अन्य फसल की तुलना में शर्करा की मात्रा ज्यादा होती है. इसीलिए गन्ना किसान ज्यादा मात्रा में इसे उगा कर अपनी आमदनी बढ़ाते हैं.

पारंपरिक तकनीकों के साथ गन्ने में फाइबर से ले कर और भी विभिन्न तरीके के कैमिकल मिलते हैं, जो  बहुत ही लाभदायक होते हैं.

आधुनिक युग के दौर में जैव प्रौद्योगिकी के साथ इस फसल को अब और अधिक विविध तरीकों से उगाया और इस्तेमाल किया जा सकता है.

प्लांट जैनेटिक इंजीनियरिंग, नए जीन डालने व मौजूदा वाले को संशोधित करने की प्रक्रिया गन्ने को न केवल सुक्रोज के, बल्कि एक अधिक कुशल उत्पादक में बदलने की कोशिश की जा सकती है. साथ ही, जैव प्रौद्योगिकी विधि से प्राप्त गन्ना चिकित्सा, औद्योगिक उपयोगों व जैव ईंधन का प्रमुख विकल्प बन सकता है.

सुक्रोज उत्पाद को बढ़ावा

गन्ने की सुक्रोज सामग्री को बढ़ाने के लिए आनुवंशिक बदलाव किया जा रहा है. इस काम के लिए शर्करा उत्पादन से संबंधित जीन व उन का अनुक्रमण क्रम की सम?ा की जरूरत होती है. वैज्ञानिकों ने इन प्रक्रियाओं को बढ़ाने वाले प्रमुख एंजाइमों की पहचान की है, जिन्हें आनुवंशिक इंजीनियरिंग के द्वारा स्टैम 1 जीन में परिवर्तन के द्वारा सुक्रोज की मात्रा अधिक या कम की जा सकती है. इस से गन्ने के उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है.

गन्ने में सुक्रोज पैदावार को बढ़ावा देने के लिए आनुवंशिक शोध करना अहम है. उदाहरण के लिए, पहले कदम के रूप में दक्षिण अफ्रीकी वैज्ञानिकों ने आनुवंशिक रूप से एक विशेष एंजाइम 2 को गन्ने की जीनोम से निकाल दिया. इस प्रक्रिया को हम जीन नाक आउट के रूप में जानते हैं.

गन्ने से जैव ईंधन बनाना

सुक्रोज का व्यापक रूप से किण्वन के माध्यम से जैव ईंधन इथेनाल बनाने के लिए उपयोग किया जाता है. इथेनाल जीवाश्म ईंधन का एक विकल्प प्रदान करता है, जो पैट्रोलियम पर निर्भरता कम कर सकता है और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन पर अंकुश लगा सकता है.

इथेनाल उत्पादन के लिए जैव प्रौद्योगिकी गन्ने की पत्तियों और बैगास (कुचले हुए डंठल से बचे हुए अवशेष) में सैल्यूलोज का दोहन करने की प्रक्रिया प्रयोग में लाई जाती है.

सैल्यूलोज की जटिल रासायनिक संरचना को एंजाइमों द्वारा सरल शर्करा में बदला जा सकता है, जिसे इथेनाल में किण्वित किया जा सकता है.

आस्ट्रेलिया में शोधकर्ताओं ने गन्ने में माइक्रोबियल जीन डाला है, जिस से ट्रांसजैनिक पौधों को बनाया जा सकता है. इन ट्रांसजैनिक गन्ने की प्रजातियों में सैल्यूलोज डिग्रेडिंग एंजाइम का उत्पादन प्रमुख रूप से गन्ने की पत्तियों में होता रहता है. दोनों माध्यमों द्वारा सैल्यूलोजिक इथेनाल तकनीक को आगे बढ़ाया जा सकता है.

गन्ने में दूसरे प्रमुख उत्पादों के लिए जैव प्रौद्योगिकी

गन्ने को सूरज की रोशनी के माध्यम से बायोमास में बदलने के लिए खेती एक प्रमुख माध्यम है. वैज्ञानिक गन्ने को चिकित्सा और औद्योगिक अनुप्रयोगों के लिए कुछ पदार्थों के सहउत्पादन के लिए एक आदर्श पौधे के रूप में इस की उपयोगिता बढ़ जाती है.

इतना ही नहीं, गन्ने की कोशिकाओं के भीतर आनुवंशिक तंत्र को इन पदार्थों के उत्पादन के लिए निर्देशित किया जा सकता है, जिस से पूरे पौधे को जैव ईंधन में बदल दिया जाता है.

Sugarcane

फसल उत्पादकता में वृद्धि

उलट पर्यावरणीय हालात, कीटों से बचाने और दूसरे जीवों से हिफाजत के लिए जीनों को गन्ने में डाला जा सकता है. इंडोनेशिया में व्यावसायिक रूप से जारी पहला ट्रांसजैनिक गन्ना सूखा प्रतिरोधक किस्म है.

इस किस्म में बीटाइन के उत्पादन के लिए जिम्मेदार एक जीवाणु जीन होता है, एक यौगिक, जो पौधों की कोशिकाओं को स्थिर करता है, जब खेत में पानी की कमी होती है,

इस जीवाणु के जीन को जैनेटिक इंजीनियरिंग की तकनीक द्वारा गन्ने में डाला जाता है.

कीटों, रोग पैदा करने वाले रोगाणुओं और विषैले खरपतवारों को नियंत्रित करने के लिए ट्रांसजैनिक दृष्टिकोण विकसित किए गए हैं.

उदाहरण के लिए, एक मिट्टी के जीवाणु से एक जीन का परिचय गन्ने को स्टेबनेर कीड़ों से बचाता है और एक हानिकारक वायरस द्वारा गन्ने का संक्रमण वायरस से प्राप्त जीन को डालने से रोका जा सकता है.

गन्ना सुधार में मार्कर की उपयोगिता

नकदी फसल होने के चलते गन्ने के घटते उत्पादन को बढ़ाने के लिए लगातार प्रयास किए जा रहे हैं. उन्नतशील रोग से रहित गन्ने की प्रजातियों का विकास कृषि वैज्ञानिकों के लिए चुनौती भरा काम है. बायोटैक्नोलौजी की मदद से वैज्ञानिक गन्ने की प्रजाति में सुधार के लिए काम कर रहे हैं.

विश्व के प्रगतिशील राष्ट्र अमेरिका, आस्ट्रेलिया में गन्ने की प्रजातियों के सुधार काफी लोकप्रिय हो रहे हैं. इन की सहायता से गन्ने की आनुवंशिक समस्याओं के समाधान में कामयाबी मिली है.

फिंगरप्रिंटिंग के माध्यम से गन्ने की विविध प्रजातियों की पहचान संबंधित सभी वैज्ञानिक सूचनाओं जैविक डेटाबेस को आसानी से सुरक्षित रखा जाता है. ऐसे शोध कामों की बदौलत ही पौधों को प्रक्षेत्र में उगाए जाने वाले खर्च से भी बचाया जा सकता है.

इन दिनों कृषि वैज्ञानिक फसलों के विविध स्वरूप जैसे नैनो बायोटैक्नोलौजी पर शोध काम में मार्कर को सब से भरोसेमंद माना गया है. वह दिन दूर नहीं, जब गन्ने को जाननेपहचानने के लिए विश्व को मार्कर का एक डिस्टल आधार जारी करने की जरूरत पड़ेगी और आने वाले समय में आणविक मार्कर को और क्वांटिटी के महत्त्व से गन्ना सुधार में क्रांति आएगी.